पंडित सीता राम शास्त्री को दिया "पौराणिक पंडो" ने धोखा

 पंडित सीता राम शास्त्री(pauranik) vs पंडित अमर स्वामी(arya)

श्री पण्डित गीताराम जी शास्त्रीसज्जन :- पुरुषो ! यजुर्वेद के अध्याय १६ में, मन्त्र ५७ और ५८ इस प्रकार हैं:-

उपहूताः पितरः सोम्यासो बहिष्येषु निधिषु प्रियेषु ।
त आगमन्तु तइह श्रुवन्त्वधि ब्रु वन्तु तेऽवन्त्वस्मान ॥५७॥
आयन्तु न पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ता पभिभि देवयानः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्र वन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥५८॥

इन दोनों मन्त्रों में "मृतक श्राद्ध" का स्पष्ट विधान है। इन मन्त्रों में कहा गया है कि-जो पितर अग्नि में जलाये गये हैं, वे श्राद्ध में आवें और भोजन करें। वेद में "मृतक श्राद्ध" का विधान है, और मतक श्राद्ध को आर्य समाज नहीं मानता, तो आर्य समाज वेद विरोधी समाज हुआ कि नहीं? उत्तर दीजिए।

(नोट-श्री पण्डित गीताराम जी शास्त्री को बोलने के लिए १० मिनट दिये गये थे, परन्तु वह केवल तीन मिनट बोलकर बैठ गये)

शास्त्रार्थ केसरी श्री पण्डित ठाकुर अमर सिंह जी:- सत्याभिलाषी सज्जनो! श्री पं० जी ने यजुर्वेद के दो मंत्र बोले हैं। और उनसे "मृतक श्राद्ध" सिद्ध होता है, यह प्रतिज्ञा की है, परन्तु दोनों मंत्रों में न तो "मतक" शब्द है और न "श्राद्ध" । "छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्" । जड़ ही कट गई, अब न शाखा होगी न पत्ते ।

इन मंत्रों के शब्दों से सिद्ध होता है कि-जीवित माता-पिता तथा पितामह आदि को बुलाकर भोजन कराने का इनमें वर्णन है। सुनिये मैं इनका अर्थ बोलता हूं।

"उपहताः... ..पितरः......आगमन्तु" इसका अर्थ यह है, "बुलाये हए पितर आवें। अब आप ही विचारिये, एक नाम के दो मनुष्य हों, उनमें से एक मर गया हो आप मुझे ही मान लीजिये । अमर सिंह दो थे, एक मर गया और एक जीवित है, एक गृहस्थ पुरुष किसी को कहे कि अमर सिंह को बुला लाओ वह भोजन करले । आप सोचिये ! जिस व्यक्ति को भेजा जाय, वह यह पूछेगा कि कौन से अमर सिंह को बुला लाऊं ? क्या जो मर गया उसको ? कहिये ऐसा पूछने वाले को पागल कहा जायेगा या नहीं? मेरे विचार से तो अवश्य ही सब लोग उसे पागल बतायेंगे। और कहेंगे कि अरे मुर्ख ! कहीं मरे हुए भी बुलाये जाते हैं । जो जीवित है उसे बुलाकर ला। स्पष्ट है कि जीवित पितरों को बुलाने की बात है, मरे हुओं की नहीं। दूसरी बात यह ध्यान देने की है, इन मंत्रों मैं चार शब्द हैं जो जीवितों के लिए ही कहे जा सकते हैं, मरे हुओं के लिए नहीं।

            १. "श्रवन्त ते" अर्थात वे हमारे वचन सूनें। अब आप लोग पण्डित जी से पूछिये कि मरा हआ कैसे सुनेगा ! जब कोई व्यक्ति मरता है, तब उसके सम्बन्धी रो रोकर कहते हैं, "कुछ हमारी भी सुनो! मरे हुए की लाश पड़ी है, उसके कान भी हैं, फिर भी नहीं सुनता शव जलने के साथ-साथ कानों के नष्ट हो जाने पर वह कैसे सुनेगा?

            २. "अधिब्रुवन्तु-अर्थात् हम से भली प्रकार से बोलो। लाश पड़ी होने पर सारे सम्बन्धी कहते हैं, "कुछ हमको तो कह जाओ" अपनी पत्नी अपने पुत्रों को कुछ कहो, वह कुछ भी नहीं बोलता, जलने के बाद वह कैसे बोलेगा ?

३. "अवन्त्वस्मान"-अर्थात् हमारी रक्षा करें। मरा हुआ अपनी लाश की रक्षा नहीं कर सका, जलने के बाद वह रक्षा करने को कैसे आयेगा ? क्या बुद्धि इन बातों को स्वीकार करती है ? पण्डित जी महाराज ! चुप क्यों हो? कुछ तो सांस निकालो। और देखो चौथा शब्द है।

४, "स्वधयामदन्तः"-अर्थात् अन्न के द्वारा भोजन से तृप्त होते हुए । क्यों भाइयो ! मुर्दा-भोजन कैसे करेगा ? अगर किसी ने मुर्दे को कहीं पानी भी पीते देखा हो तो खड़ा होकर बताये । भोजन की तो दूर की बात है । कोई खड़ा न हुआ, (जनता में हंसी)। स्पष्ट है कि-जीवित पितरों को बुलाकर उनसे यह कामना की जा सकती है कि ये लोग यहां हमारे घर में-१. भोजन से तृप्त हों। २. हमारी बातें अर्थात् प्रार्थनाएं आदि सुनें। ३. हमको उपदेश करें। ४ हमारी बातों के उत्तर दें। ५. हमारी रक्षा करें। इन मंत्रों में क्या चारों वेदों में कहीं मृतक श्राद्ध का संकेत भी नहीं है। आर्य समाज वेदों को है मानता है उनका सम्मान करता है वेदों की निन्दा तो क्या अवहेलना भी कभी नहीं करता है, इसलिए जानता आर्य समाज पूर्णरूपेण आस्तिक समाज है। श्री शास्त्री जी के प्रश्न का उत्तर मैंने दे दिया कहिये पण्डित जी महाराज ! क्या पूछना है ?

श्री पण्डित गीताराम जी शास्त्री :-- . (श्री शास्त्री जी खड़े होकर बड़े जोश में बोले कि)—यह अर्थ आप किस का. किया हुआ बोलते है।

शास्त्रार्थ केसरी श्री पण्डित ठाकुर अमर सिंह जी:- " श्री ठाकुर साहब ने खड़े होकर पंडित जी से भी दुगने जोश के साथ कड़कती हुई आवाज में कहा कि-पण्डित जी महाराज ! यह अर्थ मेरा किया हुआ है अगर इसमें कोई दोष नजर आता हो तो बताइये।

श्री पण्डित गीताराम जी शास्त्री:- शास्त्री जी कहने लगे कि-लो भाइयो ! सुना है आपने, हम तो श्री शङ्कराचार्य जी महाराज का किया हआ अर्थ बोलते हैं। और ये महाराज जी अपना किया हुआ अर्थ बोलते हैं ! कहो ! सज्जनो !! श्री शङ्कराचार्य जी का अर्थ माने या इनका मानें ? भाई हम तो श्री शङ्कराचार्य जी का ही अर्थ मानेंगे।

शास्त्रार्थ केसरी श्री पण्डित ठाकुर अमर सिंह जी:- ठाकुर जी गर्जकर बोले कि-श्री शङ्कराचार्य जी ने किसी वेद या एक भी वेद मन्त्र का भाष्य नहीं किया, आप बिल्कुल झूठ बोलते हैं।

(नोट :-"श्री पं० गीताराम जी के साथ दो पंडित सनातन धर्मी ही तिलक छाप लगाए हए बैठे थे,")

उनकी तरफ श्री ठाकुर साहब ने इशारा करके कहा कि "आप बताइये पण्डित जी ! आपने श्री शङ्कराचार्य जी का वेद भाष्य पढ़ा अथवा सुना है ? यदि हां तो बताइये कि किस वेद का भाष्य उन्होंने किया है और कहां छपा है?"

(नोट :-श्री प्रधान लाला अमीरचन्द जी रिटायर्ड तहसीलदार के बार-बार विशेष आग्रह करने पर यह दोनों पण्डित उठ खड़े हुए तथा हाथ जोड़कर बोले-"श्री शङ्कराचार्य जी ने किसी भी वेद का भाष्य नहीं किया"।)
यह सुनकर श्री पं० गीताराम जी शास्त्री क्रोध में भर गये, और अपने पोथी, पत्रे आदि उठाकर अपने दोनों साथियों को कोसते हुए तथा गाली देते हुए उठकर चले गये। और उन पण्डितों से कहने लगे कि आर्य समाजियों की गवाही दे दी-मैं तुम्हारे लिए लड़ता था, तुम उनके साथी हो गये । मरो। लो मैं जाता हूं। वह चले गये। शास्त्रार्थ समाप्त हो गया, और पं० ठाकुर अमर सिंह जी को उसी दिन से समाज के लोगों ने "शास्त्रार्थ केशरी" की पदवी दे दी। और पं० ठाकुर अमर सिंह जी उसी दिन से शास्त्रार्थ महारथी हो गये। शास्त्रार्थ के समय आर्य प्रादेशिक सभा के महोपदेशक श्री महता रामचन्द्र जी शास्त्री, श्री पण्डित अमर नाथ जी मास्टर तथा श्री पं० यज्ञदत्त जी शास्त्री उक्त सभा के तीनों उपदेशक उपस्थित थे। तीनों उपदेशकों ने श्री ठाकुर जी को बारबार गले लगाया, ठाकुर जी को बहुत ही प्यार किया तथा बहुत ही प्रशंसा की सारे नगर - "पिण्डी घेप" में आर्य समाज की धूम मच गई और उत्सव में उस दिन भी तथा अन्तिम दिन ४ फरवरी को भी बहुत भीड़ आती रही । आर्य समाज के प्रधान श्री लाला अमीरचन्द जी रिटायर्ड तहसीलदार तथा मन्त्री श्री लाला नत्थूराम जी एडवोकेट थे। 

नोट :- "श्री पं० ठाकुर अमर सिंह जी की आयु उस समय केवल लगभग २५ पच्चीस वर्ष की थी तथा यह शास्त्रार्थ उनके जीवन का प्रथम शास्त्रार्थ था" । इस शास्त्रार्थ में केवल २० मिनट ही लगे थे। sourc:- NIRANAY KE TAT PAR VOL- 1

                                                                                    ॥ओ३म्॥ 

 

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