नवीन वेदांती लोग कपोलकल्पित अर्थ का अनर्थ करके जगत की हानि मात्र कर लेते
है।
मूर्खों को जगत का वास्तविक स्वरूप क्या है? पता ही नहीं। कभी कहते है
जगत ब्रह्म है, फिर कहते है नहीं नहीं, जगत ब्रह्म जैसा प्रतीत होता है या कहते हैं कि प्रतिबिंब
है। फिर कहते है जगत ब्रह्म की
शक्तियो का विस्तार है।
कभी कहते हैं
ब्रह्म ने योगमाया के द्वारा जगत को बनाया है। इतना उलूल जुलूल बकने के बाद भी
स्पष्ट नहीं कर पाते हैं कि जगत है क्या? या जगत् कैसे बना, जगत का कारण क्या है?
केवल
अल्पज्ञानी लोग ही, इनके उपदेश जाल में फंसकर
क्लेशयुक्त अनैश्वर्य और पराधीनता दुख स्वरूप कारागार में बंद रहते।
इनकी
कुछ मान्यताएँ है,
एक यह कि -ये जीव को ब्रह्म मानते हैं। दूसरा यह कि -स्वयं पाप
करे और कहे कि हम अकर्ता और अभोक्ता है। तीसरा यह कि -जगत को मिथ्या और कल्पित
मानते हैं। चौथा यह कि -मोक्ष में जीव का लय मानते हैं। यानी जो जीवात्मा मोक्ष को
प्राप्त होता है तो ब्रह्म में वीलीन हो जाता है।
1.जीव को ब्रह्म मानने में प्रथम इस वाक्य का प्रमाण देते हैं कि"प्रज्ञानमानन्दं ब्रह्म"। इसको ऋग्वेद का वाक्य कहते हैं, परन्तु ऋग्वेद के आठों अष्टकों में यह वाक्य कहीं नहीं है, किन्तु वेद का व्याख्यान जो "एतरेय ब्राह्मण" उस में यह वाक्य है, सो ऐसा पाठ है कि-"प्रज्ञानं ब्रह्म"। सो इस वाक्य में ब्रह्म का स्वरूप निरूपण किया है कि-
"प्रकृष्टं ज्ञानं यस्मिन् तत्प्रज्ञानं अर्थात् प्रकृष्टज्ञानस्वरूपम्"॥
(व्याख्या)-जिसमें प्रकृष्ट सर्वोत्तम अनन्त ज्ञान है वह प्रज्ञान कहावे अर्थात् प्रकृष्टज्ञानस्वरूप प्रज्ञान विशेषण से ऐसा निश्चित हुआ कि जिसको कभी अविद्यान्धकार अज्ञान के लेशमात्र का भी सम्बन्ध नहीं होता, न हुआ और न होगा। "ब्रह्म" जो सब से वृद्ध (बड़ा) और सब जगत् का बढ़ानेवाला, स्वभक्तों को अनन्त मोक्षसुख से अनन्तानन्द में सुख बढ़ानेवाला तथा व्यवहार में भी बृहत् (बड़े) सुख का देनेवाला, ऐसा परमात्मा का स्वभाव और स्वरूप है।
इस वाक्य का नाम "महावाक्य" नवीन वेदान्तियों ने रक्खा है, सो अप्रमाण है, क्योंकि किसी ऋषिकृत ग्रन्थ में इन का "महावाक्य" नाम नहीं लिखा है।
“अहं ब्रह्मास्मि' इस वाक्य का वेदान्ती लोग ऐसा अर्थ करते हैं कि मैं ब्रह्म हूँ अर्थात् भ्रान्ति से मैं जीव बना था, सो अब मैंने जान लिया कि साक्षात् ब्रह्म हूँ। यह अनर्थ इनका बिलकुल खोटा है, क्योंकि पूर्वापर ग्रन्थ का सम्बन्ध देखे विना चोर की नाईं बीच में से एक टुकड़ा लेके अपना मतलबसिन्धु का अर्थ करके स्वार्थसिद्धि करते हैं। अर्थात पूरा का अर्थ न कर केवल अपने मत की सिद्धि के लिए बिच में से श्लोको की चोरी कि है, इन वेदान्तियो ने
देखो, इस वचन का पूर्वापर सम्बन्ध इस प्रकार है-
शतपथ ब्राह्मण, काण्ड १४। प्रपाठक ३। ब्राह्मण २। कण्डिका १८
'अतति सर्वत्र व्याप्नोतीत्यात्मा परमेश्वरः'। इस प्रकारण में यह है कि सब जीव परमेश्वर की उपासना करें और किसी की नहीं। क्योंकि सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी जो परब्रह्म वह सब से प्रियस्वरूप है, उसी को जानना। पुत्र, वित्त, धन तथा सब जगत् के सत्य पदार्थों से वही ब्रह्म प्रियतर है। तथा अन्तरतर आत्मा का अन्तर्यामी परमात्मा है, जो कि अपने सबों का आत्मा है। जो कोई इस आत्मा से अन्य को प्रिय कहता है उसके प्रति (ब्रूयात्) कहे कि परमात्मा से तू अन्य को प्रिय बतलाता है, सो तू दुःखसागर में गिर के सदा रोवेगा। और जो कोई परमात्मा को छोड़ के अन्य की उपासना वा प्रीति करेगा सो सदा रोवेगा। जो पाषाणादि जड़ पदार्थों की उपासना करेगा सो सदैव रोवेगा। (आत्मानमेव प्रियमुपासीत। स य आत्मानमेव प्रियमुपासते न हास्यप्रियं प्रमायुकं भवति) और जो सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, निराकार, अज इत्यादि विशेषणयुक्त परमेश्वर की उपासना करता है, वह इस लोक इस जन्म तथा परलोक परजन्म तथा मोक्ष में सर्वानन्द को प्राप्त होता है। और उसी ईश्वर की कृपा से (ईश्वरो ह तथैव स्यात् ) मनुष्यों के बीच में परमैश्वर्य को प्राप्त हो के समर्थ सत्तावान् होता है अन्य नहीं। तथा (न हास्यप्रियं प्रमायुकं भवति) यह जो परब्रह्म का उपासक उसका आनन्द सुख 'प्रमायुक' नष्ट कभी नहीं होता, किन्तु उसको सदैव स्थिर सुख रहता है। क्योंकि (अत्र ह्येते सर्व एकं भवन्ति) जिस ब्रह्मज्ञान में सब परस्पर प्रीतिमान् होके जैसा अपने को सुख वा दुःख, प्रिय और अप्रिय जान पड़ता है, वैसा ही सब प्राणीमात्र का सुख और दुःख तुल्य समझ के न्यायकारित्वादिगुणयुक्त और सब मनुष्यमात्र के सख में एकीभूत होके एकीरूप सुखोन्नति करने में प्रयत्न सब करते हैं, क्योंकि जैसा अपना आत्मा है, वैसा सब के आत्माओं को वह जानता है॥१९॥
(तदाहुः इत्यादि) जो मनुष्य ब्रह्मविद्यायुक्त हैं, वे ऐसा कहते हैं कि परमेश्वर के सामर्थ्य से सब जगत् उत्पन्न हुआ और सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाला वही है, ऐसा ब्रह्मविद्या-वालों का निश्चय है। सब जगत् में (तद् ब्रह्मावेत् ) व्याप्त होके सबकी रक्षा कर रहा है, (किमु) और कोई अन्य जगत् का कारण नहीं॥ २०॥
(ब्रह्म वा इदमित्यादि) सृष्टि के आदि में एक सर्वशक्तिमान् ब्रह्म ही वर्तमान था, सो अपने आत्मा को (अहं ब्रह्मास्मीति तदेवावेत्) स्वस्वरूप का विस्मरण उस को कभी नहीं होता। उस परमात्मा के सामर्थ्य से सब जगत् उत्पन्न हुआ, ऐसा विद्वानों के बीच में से जो ब्रह्म अविद्यानिद्रासे उठके जानता है, सो ही ब्रह्मानन्द सुखयुक्त होता है। तथा ऋषि और मनुष्य इनके बीच में जो अज्ञाननिद्रा से उठके ब्रह्मविद्यारूप प्रकाश को प्राप्त होता है, सो ब्रह्म के नित्य सुख को प्राप्त होता है ॥२१॥
(तद्वैतदित्यादि) इस ब्रह्म को वामदेव ऋषि देखता और प्राप्त हुआ मैं मनु और सूर्य नामक ऋषि देहधारी अथवा सूर्यलोकस्थ जन्मवाला हुआ था, ऐसा विज्ञान समाधिस्थ परमेश्वर के ध्यान में तत्पर जो वामदेव ऋषि उसको प्राप्त हुआ था। सो यह विज्ञान जिसको इस प्रकार से होगा सो भी इस प्रकार जानेगा कि (य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति) मैं ब्रह्म हूँ, अर्थात् ब्रह्मस्थ कि मेरे बाहर और भीतर ब्रह्म ही व्यापक (भर रहा) है। जो इस प्रकार ज्ञानवाला पुरुष होता है, सो इस सब सुख को प्राप्त होता है, उसके सामने अनैश्वर्यवाले जो देव इन्द्रिय वा अन्य विद्वान् ऐश्वर्यवाले नहीं होते, किन्तु ऐसा जो ब्रह्म का उपासक सो इन इन्द्रिय और अन्य विद्वानों का आत्मा अर्थात् प्रियस्वरूप होता है। जैसे आकाश से घर भिन्न नहीं होता तथा आकाश घर से भिन्न नहीं, और आकाश तथा घर एक भी नहीं किन्तु पृथक्-पृथक् दोनों हैं, एवं जीवात्मा और परमात्मा व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से भिन्न वा अभिन्न नहीं हो सकता (व्याप्य व्यापक का संबंध यहाँ पर इस प्रकार समझिए कि जैसे लोहा स्थूल है और अग्नि सूक्ष्म है। लोहे के अंदर अग्नि प्रवेश कर जाती है। इसी प्रकार लोहा स्थूल है और विद्युत सूक्ष्म है तो लोहे के अंदर विद्युत प्रवेश कर जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि लोहा और विद्युत एक है दोनों अलग अलग तत्व है।तो व्याप्य व्यापक का संबंध इस प्रकार समझना चाहिए।)
य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः॥
(व्याख्या)-हे जीवात्मन्! जो परमात्मा तेरा अन्तर्यामी अमृतस्वरूप उपास्य है, तेरे में व्यापक हो के भर रहा है, तेरे साथ है और तेरे से अलग है तथा मिल भी रहा है, जिसको तू नहीं जानता, क्योंकि जिसका तू शरीर है, जैसे यह स्थूल शरीर जीव का है, वैसे परमात्मा का तू भी शरीरवत् है, जो तेरे बीच में रह के तेरा नियन्ता है, उसी अन्तर्यामी को छोडके दूसरे पदार्थों की उपासना मत कर।
जो अन्य देव अर्थात् ईश्वर से भिन्न श्रोत्रादि इन्द्रिय अथवा किसी देहधारी विद्वान् देव को ब्रह्म जाने अथवा उपासना करे वा ऐसा अभिमान करे कि मैं तो ईश्वर का उपासक नहीं, उससे मैं भिन्न हँ तथा वह मेरे से भिन्न है, उस से मेरा कुछ प्रयोजन नहीं, किंवा ईश्वर नहीं है, अथवा ऐसा कहता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ, सो इन्द्रियों वा देहधारी विद्वानों का पशु है, जैसा कि बैल वा गर्दभ वैसा वह मनुष्य है, जो परमेश्वर की उपासना नहीं करता ॥२२॥
इत्यादि प्रकरण विचार के विना चार अक्षर को पकड़ के चोरवत् कपोलकल्पित अर्थ का प्रमाण नहीं होता है। यह भी यजुर्वेद का वचन नहीं है किन्तु शतपथ ब्राह्मण का यह पूर्वोक्त वचन है।
वैसे ही “तत्त्वमसि" यह भी सामवेद का वचन नहीं है, किन्तु सामब्राह्मणान्तर्गत 'छान्दोग्य' उपनिषद् का है। इसका भी पूर्वापर प्रकरण छोड़ के नवीन वेदान्तियों ने अनर्थ कर रक्खा है। उस में ऐसा प्रकरण है कि:
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिद, सर्वं तत् सत्य स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति॥
उद्दालक अपने श्वेतकेतु पुत्र को उपदेश देते हैं कि-सो पूर्वोक्त परमात्मा सब जगत् का आत्मा है। सो कैसा है कि जो (अणिमा) अत्यन्त सूक्ष्म है कि प्रकृति, आकाश और जीवात्मा से भी अत्यन्त सूक्ष्म तथा वही सत्य है। हे श्वेतकेतो! यही सब जगत् का अन्तर्यामी आधारभूत सर्वाधिष्ठान है। सो ब्रह्म सनातन, निर्विकार, सत्यस्वरूप, अविनश्वर है।
(प्रश्न) जैसे ईश्वर सब जीवादि जगत का आत्मा है. वैसे ईश्वर का भी कोई अन्य आत्मा है वा नहीं?
(उत्तर) -(स आत्मा) परमेश्वर का आत्मान्तर कोई नहीं, किन्तु उस का आत्मा वही है। हे श्वेतकेतो! जो सर्वात्मा है, सो तेरा भी अन्तर्यामी अधिष्ठान आत्मा वही है। अर्थात्-"तदन्तर्यामी तदधिष्ठानस्तदात्मकस्त्वमसीति फलितोऽर्थः" तत्सहचरण वा तत्सहचार उपाधि इस वाक्य में जानना ।
चौथा "अयमात्मा ब्रह्म" इसको अथर्ववेद का वाक्य बतलाते हैं। यह अथर्ववेद का तो वाक्य नहीं है किन्तु माण्डूक्योपनिषदादिकों का है। इसका तो स्पष्ट अर्थ है कि विचारशील पुरुष अपने अन्तर्यामी को प्रत्यक्ष ज्ञान से देखके कहता है कि यह जो मेरा अन्तर्यामी है, यही ब्रह्म है, अर्थात् मेरा भी यह आत्मा है। अपने उपास्य का प्रत्यक्षानुभवविधायक जीव के समझने के लिये यह वाक्य है। तथा-"योऽसावादित्ये पुरुषस्सोऽसावहम्' यह यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का वाक्य है। जो आदित्य में अर्थात् प्राण में पुरुष है, वह मैं जीवात्मा हूँ। "आदित्यो वै प्राणः" शतपथब्रह्मणे। तथा"आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमाः" इति मुण्डकोपनिषदि। इस प्रमाण से जो प्राण में पूर्ण, प्राण में सोता, प्राण का प्रेरक सो जीवात्मा पुरुष मैं हूँ। "यद्वा परमेश्वरोऽभिवदति-हे जीवाः! योऽसौआदित्ये बाह्ये सूर्ये किं वा अन्तर्गते प्राणे स असौ अहमेवास्मीति मां वित्त"। हे जीवो! मुझको बाहर और भीतर तुम लोग जानो, कि सूर्यादि सब स्थूल जगत् तथा आकाश और जीवादि सूक्ष्म जगत् के बीच में मैं जो ईश्वर सो परिपूर्ण हूँ। ऐसा तुम लोग मुझको जानो। क्योंकि इस मन्त्र के आगे "अग्ने नयेत्यादि" मोक्षार्थ ईश्वर की प्रार्थना कथित है, तथा “ओं खं ब्रह्म" ओं जिसका सर्वोत्तम नाम है, खं आकाश की नाईं व्यापक सर्वाधिष्ठान जो है सो सब से बड़ा सब जीवों का उपास्य ब्रह्म है। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत" यह छान्दोग्योपनिषद् का वचन है। इसका अर्थ भी तात्स्थ्योपाधि से करना-
"इदं सर्वं जगत् ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मस्थम्। यद्वा इदं यजगदधिष्ठानं तत्सर्वं ब्रह्मैव, नात्र किञ्चिद्वस्त्वन्तरं मिलितमिति विज्ञेयम्, यथेदं सर्वं घृतमेव नेदंतैलादिभिमिश्रितमिति॥"
यह सब जगत् ब्रह्म नाम ब्रह्मस्थ ही है, अथवा यह प्रत्यक्षान्तर्यामी । जो चेतन सो केवल एकरस ब्रह्म वस्तु है। इसमें दूसरी कोई वस्तु मिली। हुई नहीं, जैसे किसी ने कहा कि यह सब घृत है अर्थात् तैलादिक से मिश्रित नहीं है, वैसे उस ब्रह्म की उपासना शान्त होके जीव अवश्य करे, और किसी की नहीं॥
ब्रह्मसूत्र में भी जिव और इश्वर में भेद ही है| परन्तु यहाँ पर भी शंकराचार्य ने लिपा पोती करने का प्रयास किया है-
अधिकं तु भेदनिर्देशात् ॥ २ । १ । २२ ॥
अर्थात- तु-किन्तु ( ब्रह्म जीव नहीं है, अपितु उससे ); अधिकम् अधिक है; भेदनिर्देशात्-क्योंकि जीवात्मासे ब्रह्मका भेद बताया गया है।
अश्मादिवच्च तदनुपपत्तिः ॥ २॥ १ । २३ ।।
अर्थात- च-तथा; अश्मादिवत् (जड) पत्थर आदिकी भॉति, (अल्पज्ञ ) जीवात्मा भी ब्रह्मसे भिन्न है, इसलिये; तदनुपपत्तिा-जीवात्मा और परमात्माका अत्यन्त अभेद नहीं सिद्ध होता(अर्थात- जीवात्मा और इश्वर में भेद ही है अभेद नहीं)।
2. दसरी यह बात है कि इस शरीर में कर्ता और भोक्ता जीव ही है, क्योंकि अन्य सब बुद्ध्यादि जड़ पदार्थ जीवाधीन हैं। सो पाप और पुण्य का कर्त्ता और भोक्ता जीव से भिन्न कोई नहीं। क्योंकि 'बृहदारण्यकादि उपनिषद्' तथा 'व्याससूत्र' और 'वेदादिशास्त्रों' में यही सिद्धान्त है
"श्रोत्रेण शृणोति, चक्षुषा पश्यति, बुद्ध्या निश्चिनोति, मनसा सङ्कल्पयति" इत्यादिक प्रतिपादन किये हैं। जैसे 'असिना छिनत्ति शिरः' तलवार को लेके किसी का शिर काटता है, इसमें काटने का कर्ता मनुष्य ही है, काटने का साधन तलवार है तथा काटने का कर्म शिर है, इसमें पाप और दण्ड मनुष्य (जो मारने वाला है उस) को होता है, तलवार को नहीं। इसी प्रकार श्रोत्रादिकों से पाप पुण्य का कर्ता भोक्ता जीव ही है, अन्य नहीं। यह 'गोतम मुनि' तथा 'व्यासादिकों' ने सिद्ध किया है कि इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति॥ ये छः (इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान) आत्मनिष्ठ हैं। "तयोरन्यः पिप्पलं स्वादत्ति" इसमें भी जीव सुख द:ख का भोक्ता और पाप पुण्य का कर्त्ता सिद्ध होता है। अनुभव से भी जीवात्मा ही कर्ता और भोक्ता है, इसमें कुछ संदेह नहीं कि केवल इन्द्रियाराम होके विषयभोगरूप स्वमतलब साधने के लिये यह बात बनाई है कि जीव अकर्ता, अभोक्ता और पाप पुण्य से रहित है, यह बात नवीन वेदान्ती लोगों की मिथ्या ही है।
3. तीसरे इनकी यह बात है कि जगत् को मिथ्या कल्पित कहते और मानते हैं। सो इनका केवल अविद्यान्धकार का माहात्म्य है। अन्य अधिक न हो इसलिये जगत् सत्य होने में एक ही प्रमाण पुष्कल है:
सन्मूला: सोम्येमाः प्रजा सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः॥ यह छान्दोग्य उपनिषद् का वचन है।
(अर्थ)-जिसका मूल सत्य है उसका वृक्ष मिथ्या कैसे होगा। तथा जो परमात्मा का सामर्थ्य जगत् का कारण है, सो नित्य है, क्योंकि परमात्मा नित्य है, तो उसका सामर्थ्य भी नित्य है, उसी से यह जगत् हुआ। सो यह मिथ्या किसी प्रकार से नहीं होता।
जो ऐसा कहो कि-"आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा"। सो यह बात अयक्त है, क्योंकि जो पर्व नहीं है सो फिर नहीं आ सकता, जिस कूप में जल नहीं है, उससे पात्र में जल नहीं आता। इसलिये ऐसा जानना चाहिये कि ईश्वर के सामर्थ्य में अथवा सामर्थ्यरूप जगत् पूर्व था, सो इस समय है और आगे भी रहेगा। कोई ऐसा कहे कि संयोगजन्य पदार्थ संयोग से पूर्व नहीं हो सकता, वियोगान्त में नहीं रहता, सो वर्तमान में भी नहीं, सो जानना चाहिये। इसका यह उत्तर है कि-विद्यमान सत् पदार्थों का ही संयोग होता है, जो पदार्थ नहीं हों उनका संयोग भी नहीं होता, इससे वियोग के अन्त में भी पृथक-पृथक वे पदार्थ सदैव रहते हैं, कितना ही वियोग हो तो भी अन्त में अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ रह ही जाता है, इसमें कुछ सन्देह नहीं। इतना कोई कह सकता है कि संयोग और वियोग तो अनित्य हुआ, सो भी मान्य करने के योग्य नहीं। क्योंकि जैसे वर्तमान में संयुक्त पदार्थ होके पृथिव्यादि जगत् बना है, सो पदार्थों के मिलने के स्वभाव के विना कभी नहीं मिल सकते, तथा वियोग होने के विना वियुक्त नहीं हो सकते। सो मिलना और पृथक् होना यह पदार्थों का गुण ही है। जैसे मिट्टी में मिलने का गुण होने से घटादि पदार्थ बनते हैं, बालुका से नहीं, सो मिट्टी में मिलने और अलग होने का गुण ही है,
सो गुण सहज स्वभाव से है, वैसे ईश्वर का सामर्थ्य जिससे यह जगत् बना है, उसमें संयोग और वियोगात्मक गुण सहज (स्वाभाविक) ही है। इससे निश्चित हुआ कि जगत् का कारण जो ईश्वर का सामर्थ्य सो नित्य है। तो उसके वियोग आदि गुण भी नित्य हैं। इससे जो जगत् को मिथ्या कहते हैं, उनका कहना और सिद्धान्त मिथ्याभूत है, ऐसा निश्चित जानना॥ जगत नित्य नहीं क्योकि वो बनता बिगड़ता है, परन्तु जगत का कारण प्रकृति नित्य है| चुकी प्रकृति नित्य है इसीलिए जगत भी वास्तविक है मिथ्या(झूठ) नहीं
4. चौथी इनकी यह बात है कि जीव का लय ब्रह्म में मोक्षसमय में मानते हैं, जैसे समुद्र में बहुत विंदु का मिलना। यह भी इनकी बात मिथ्या है। इसके मिथ्या होने में प्रमाण हैं, परन्तु ग्रन्थविस्तार न हो इसीलिये संक्षेप से लिखते हैं
'कठवल्ली' तथा 'बृहदारण्यकादि' उपनिषदों में मोक्ष का निरूपण किया है:
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्॥
(अर्थ)-जब जीव का मोक्ष होता है, तब पाँच ज्ञानेन्द्रियों का ज्ञान मन के साथ अर्थात् विज्ञान के साथ स्थिर हो जाता है, और बुद्धि जो निश्चयात्मक वृत्ति सो चेष्टा न करे, अर्थात् शुद्ध ज्ञानस्वरूप जीवात्मा परमात्मा में परमानन्दस्वरूपयुक्त होके सदा आनन्द में रहता है। उसीको परमगति अर्थात् मोक्ष कहते हैं।
सो अन्यत्र भी कहा है कि:
परमज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते॥ इति श्रुतिर्ब्रहदारण्यकस्य॥
परम ज्योति जो परमात्मा उसको (उपसम्पद्य) अर्थात् अत्यन्त समीपता को प्राप्त होके (स्वेन रूपेण) अर्थात् अविद्यादि दोषों से पृथक् होके शुद्ध युक्त, ज्ञानस्वरूप और स्वसामर्थ्यवाला जीव मुक्त हो जाता है।
वही स्वरूप 'शारीरक सूत्रों' के चतुर्थाध्याय के चतुर्थपाद में निरूपण किया है कि:
अभावं वादरिराह ह्येवम्॥
मोक्षसमय में मन को छोड़ के अन्य इन्द्रिय वा शरीर जीव के साथ नहीं रहते, किन्तु मन तो रहता ही है, औरों का अभाव होता है, यह निश्चय वादरि आचार्य का है।
तथा-भावं जैमिनिर्विकल्पामननात्॥ जैमिनि आचार्य का यह मत मोक्षविषयक है कि जैसे मोक्ष में मन जीव के साथ रहता है, वैसे इन्द्रियों तथा स्वशक्तिस्वरूप शरीर का सामर्थ्य भी मोक्ष में रहता है। अर्थात् शुद्ध स्वाभाविक सामर्थ्ययुक्त जीव मोक्ष में भी रहता है।
तथा वादरायण (व्यासजी) का मत ऐसा है कि:द्वादशाहवदुभयविधं वादरायणेऽतः॥ जैसे मृत शौच की निवृत्ति के पश्चात् द्वादशवाँ जो दिन सो सत्रयागरूप माना है और भिन्न भी माना जाता है, उस दिन में यज्ञ के भाव और अभाव दोनों हैं, तद्वत् स्थूल शरीर तथा अविद्यादि क्लेशों का अत्यन्त अभाव और ज्ञान तथा शुद्ध स्वशक्ति का भाव सदा मोक्ष में बना रहता है। सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा के साथ सब जन्ममरणादि दुःखों से छूट से सदा आनन्द में युक्त जीव रहता है, यह वादरायण जो व्यासजी उनका मत है। और 'गोतम ऋषि' का भी ऐसा ही मत हैदुः
खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः॥२॥
बाधनालक्षणं दुःखम्॥२१॥
तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः ॥२२॥ -न्यायदर्शन अ० १। आ० १
मिथ्या ज्ञान ऐसा है कि जड़ में चेतनबुद्धि और चेतन में जड़बुद्धि, इत्यादि अनेक प्रकार का मिथ्या ज्ञान है; उस की निवृत्ति होने से अविद्यादि जीव के दोष निवृत्त हो जाते हैं, दोष की निवृत्ति होने से प्रवृत्ति जो कि विषयासक्ति और अन्याय में आसक्ति है, वह निवृत्त हो जाती है। प्रवृत्ति से छूटने से जन्म छूट जाता है, जन्म के छूटने से दुःख छूट जाता है, सब दुःखों के छूटने से अपवर्ग जो मोक्ष वह यथावत् होता है॥२॥ बाधना-विविध प्रकार की पीड़ा अर्थात् जो दुःख हैं उनकी अत्यन्त निवृत्ति के होने से जीव को अपवर्ग जो मोक्ष ईश्वर के आधार में अत्यन्तानन्द वह सदा के लिये प्राप्त होता है, इसका नाम अपवर्ग अर्थात् मोक्ष है॥ २१-२२॥ इत्यादिक अनेक प्रमाण हैं कि मोक्ष में जीव का लय नहीं होता, किन्तु अत्यन्तानन्दरूप जीव रहता है। एक अन्य भी प्रमाण देते हैं कि
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् ब्रह्मणा सह विपश्चितेति॥ तैत्तिरीयोपनिषद्वचनम्॥
जो जीव सत्य, ज्ञान और अनन्तस्वरूप ब्रह्म स्वान्तर्यामी की स्वबुद्धि, ज्ञान में निहित (स्थित) जानता एवं प्राप्त होता है, वह परम व्योम व्यापक स्वरूप जो परमात्मा उस में मोक्षसमय में स्थिर होता है। पश्चात् सर्वविद्यायुक्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान जो ब्रह्म उस के साथ सब कामों को प्राप्त होता है, अर्थात् सब दुःखों से छूटके परमेश्वर के साथ सदानन्द में रहता है।
- संदर्भ - महर्षि दयानंद सरस्वती
प्रश्न - तुमने अद्वैतवाद के खंडन में उपनिषद ब्राह्मण ग्रंथ इत्यादि का प्रमाण दिया है, जब हम उपनिषदों से प्रमाण देते हैं, तब क्यों नहीं मानते?
उतर- वेद विरुद्ध नहीं मानते |
प्रश्न - फिर हम तुम्हारा क्यों माने?
उतर- हमारे दिए गए सारे प्रमाण वेद सम्मत है इसीलिए
प्रश्न - तुम उपनिषदों, ब्राहमण ग्रन्थ इत्यादि को वेद क्यों नहीं मानते?
उतर- क्योंकि उपनिषद् वेद नहीं है, इसलिए नहीं मानते।
प्रश्न -उपनिषद के वेद न होने में क्या प्रमाण है?
उतर- उपनिषद् वेद नहीं हो सकती है क्योंकि वे सृष्टि के आदि में केवल चार ऋषियोंको वेदों का उपदेश किया गया था परमात्मा द्वारा। और उन चार ऋषियों का नाम है अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा अतः जीतने भी उपनिषद्, ब्राह्मण, ग्रन्थ इत्यादि है। वो सब वेदों के बाद लिखे गए।
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और [तु अर्थात् ] अङ्गिरा से ऋग् यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
वेद और ब्राह्मणग्रन्थ का पृथक वर्णन
आश्वालयन गृह्यसूत्र के तृतीय अध्याय की तृतीय कण्डिका से स्वाध्यायविधि का वर्णन है। व्यक्ति को कौन से ग्रन्थ का स्वाध्याय करना चाहीये, उसकी सूचि यहाँ पर दि गई है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है की चारो वेद और ब्राह्मणग्रन्थ का पृथक वर्णन यहा मिलता है।
अथ स्वाध्यायमधीयीत ऋचो यजूंषि सामान्यथर्वाङ्गिरसो ब्राह्मणानि कल्पान्गाथा नाराशंसीरितिहासपुराणानीति ३.३.१
अर्थ - स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मणग्रन्थ, कल्प, नाराशंसी, गाथा, इतिहास तथा पुराणनीति को पढना चाहिये।
यदृचोऽधीते पयआहुतिभिरेव तद्देवतास्तर्पयति यद्यजूंषि घृताहुतिभिर्यत्सामानि मध्वाहुतिभिर्यदथर्वाङ्गिरसः सोमाहुतिभिर्यद्ब्राह्मणानि कल्पान् गाथानाराशंसीरितिहासपुराणानीत्यमृताहुतिभिः २
यदृचोऽधीते पयसः कुल्यास्य पितॄन्त्स्वधा उपक्षरन्ति यद्यजूंषि घृतस्य कुल्या यत्सामानि मध्वः कुल्या यदथर्वाङ्गिरसः सोमस्य कुल्या यद्ब्राह्मणानि कल्पान्गाथा नाराशंसीरितिहासपुराणानीत्यमृतस्य कुल्याः ३
अर्थ - ऋग्वेद के अध्यन करनेवाले के देवता दूध, यजुर्वेदमें घी, सामवेदमें शहद, अथर्ववेदमें सोम तथा गाथा, नाराशंसी, इतिहास और पुराणनीति पढनेवाले के देवता अमृत से तृप्त होते है।
अर्थ - ऋग्वेद के अध्यन करनेवाले पितर दूध, यजुर्वेद के घी , सामवेद के शहद, अथर्ववेद के सोम तथा गाथा, नाराशंसी, इतिहास और पुराणनीति पढनेवाले के अमृत से तृप्त होते है।
अर्थघटन
उपरोक्त तीनो सूत्रमें वेद और ब्राह्मणशब्द का पृथक वर्णन है। अगर दोनो वेद होते तो उनको चारवेद से अलग क्युं दिखाया जाता? अगर चारो वेद के ब्राह्मण जो तो वेद के अङ्ग है तो उनके नाम से ही ब्राह्मण नाम ग्रहण हो जाता। ऋग्वेद के नाम से ही उसके ब्राह्मणग्रन्थ का ग्रहण हो जाता। लेकिन ऋग्वेद शब्द और ब्राह्मणग्रन्थ को पृथक दिखाने का अर्थ यहीं हुआ की दोनो अलग है।
तथा सूत्र २ और ३ में ऋग्वेदादि चार वेद तथा ब्राह्मणग्रन्थ के अध्यन का फल भी अलग अलग है। ऋग्वेद पढनेवाले विद्यार्थी के देवता और पितर दूध से तृप्त होते है, और ऋग्वेद के ब्राह्मण पढनेवाले के देवता और पितर अमृत से तृप्त होए है। अगर ऋग्वेद के ब्राह्मण भी ऋग्वेद का अङ्ग होते तो दोनो की तृप्ती एक ही प्रकार से होती। ऐसा ही बाकी वेद और उनके ब्राह्मण के लिये जान लो।
आश्वालयन गृह्यसूत्र के उपरोक्त प्रमाण से सिद्ध होआ है की ऋषि आश्वालयन वेद और ब्राह्मणग्रन्थ को पृथक मानते थे।
अद्वैतवादियो से कुछ प्रश्न
१. आत्मा ब्रह्म का ही अंश है। तो एक दृष्टांत लो, जैसे तरबूज के एक छोटे से हिस्से को काटें। तो वो तरबूज रहेगा या केला बन जाएगा? तो उतर है की - तरबूज ही रहेगा। तो इसी प्रकार तुम ये कहते होजिव ब्रह्म है या अंश है तो भी ब्रह्म ही रहेगा, परन्तु वास्तविकता है की जिव ब्रह्म नहीं है| जो कहो की अविद्या और अज्ञान के कारन हुआ तो इससे ब्रह्म अज्ञानी सिद्ध होता है?
२. यदि जगत की उत्पति ब्रह्म से हुई है तो ये समझाओ की जगत का कारन तो जड़ है| तो जड़ के जितने गुण है वो ब्रह्म में होने चाहिए | जगत बनता है बिगड़ता है सदा एक रस नहीं रहता तो ये गुण ब्रह्म में क्यों नहीं?
३. जब मोक्ष में जिव ब्रह्म में लय हो जाता है तो आनंद का सुख कौन भोगता है ?
४. यदि मान लें कि ब्रह्म ही जीव बना है तो सारे प्राणियों के जीव ब्रह्म के टुकड़े मानने होंगे, इससे ब्रह्म अखंड व अटूट नहीं रहेगा।
५. इस प्रश्न का उत्तर भी नवीन वेदान्तियों को देना होगा कि ब्रह्म का कितना भाग अभी जीव नहीं बना और वह भाग कहाँ-कहाँ है ?
५. ब्रह्म का जो भाग अभी तक जीव नहीं बना, वह किसी कारण से नहीं बना और जो जीव बना है वह क्यों बना ? क्या जीव बना हुआ भाग दूसरे भाग से कमजोर है या दोषयुक्त है ? यदि है तो ब्रह्म को एक रस नहीं कह सकते । जिसकी अवस्था बदलती है अर्थात् जो कभी जीव बनता है कभी ब्रह्म वह भी एक रस नहीं हो सकता ।
६. यह भी बताना होगा कि जीव के अन्दर ब्रह्म है या नहीं ? यदि कहें ब्रह्म सर्वव्यापक है अतः जीव के अन्दर भी है, तो प्रश्न उठेगा कि जब जीव स्वयं ब्रह्म ही है तो जीव के अन्दर व्यापक ब्रह्म कैसे माना जा सकता है ? यदी कहें कि जीव में ब्रह्म नहीं रहता, तो ईश्वर सर्वव्यापक नहीं रहा ।
७. जिस वस्तु के अवयव (टुकड़े/अंश) हो सकते हैं वह उनके अवयवों से मिलकर बनी होती है | जिस ब्रह्म में से असंख्य जीव बन चुके व बन रहे हैं, तथा पुनः (ब्रह्म में ही) विलीन भी हो रहे हैं वह स्वयं भी केवल जीवों का संग्रह ही मानना होगा, ब्रह्म के रूप में उसका पृथक् अस्तित्व नहीं हो सकता | सावयव होने से ब्रह्म के अनित्य होने का दोष भी आयेगा।
८. ब्रह्म का स्वाभाविक गुण ज्ञान है और स्वाभाविक गुण का कभी नाश नहीं होता | तब कैसे सम्भव है कि ज्ञान स्वरूप ब्रह्म] कभी अज्ञानी हो जावे ?
९. अविद्या वा माया क्या वस्तु है ? वह कहाँ रहती थी ? और कब उसने ब्रह्म को पकड़ कर पहले ईश्वर और फिर जीव को बनाया ?
१०. ब्रह्म और अविद्या के (माया के) मेल से जीव बनता है तो क्या वह अविद्या या माया से दुर्बल है ? क्या सर्वशक्तिमान को कोई अन्य शक्ति दबा सकती है ? क्या सर्वज्ञ में अविद्या रह सकती है ?
११. जिस अविद्या वा माया ने ब्रह्म को जीव बनाकर अपने अधीन किया, क्या वह ब्रह्म को रोक नहीं सकती कि जीवों को कर्मफल के रूप में दुःख न देवे ?
१२. ब्रह्म या ईश्वर जो जीवों को कर्म फल दे रहा है, वह किसी अधिकार से देता है ? क्या कोई राजा या न्यायाधीश स्वयं ही दोषी या चोर बनकर अपने विरुद्ध साक्षियाँ लाता व अपने आपको दण्ड देता देखा जाता है ?
१३. जब सब ब्रह्म ही ब्रह्म है तो प्रकृति या जड़ पदार्थ कहाँ से आ गये ?ब्रह्मा या ईश्वर को अविद्या ने जीव बनाया है तो जड़ पदार्थ भी ब्रह्म से ही बने हैं या और किसी के मेल से ? यदि कहो कि प्रकृति ब्रह्म से नहीं बनी तो मानना होगा कि ब्रह्म से अतिरिक्ति अन्य कोई वस्तु भी अनादि है और जब प्रकृति को भी अनादि माना तो जीव को अनादि मानने में क्या रुकावट है ?
१४. यह कहना भी निरर्थक है कि - “चूंकि जगत् स्वप्न की तरह मिथ्या है अतः जीव भी मिथ्या है ।'' कारण कि यह विचार केवल कल्पनाओं पर लागू हो सकता है । कहने को यह भी कल्पना हो सकती है कि जैसे स्वप्न की बात व जगत् मिथ्या है वैसे ही ब्रह्म] को मानना भी असत्य हो, ऐसे ही नवीन वेदान्ती जो अपने आपको ब्रह्म मानते हैं यह भी अज्ञान हो । तब मात्र अज्ञान ही रहेगा अन्य कुछ नहीं, ब्रह्म भी नहीं । यदि सर्प वास्तव में न हो तो रज्जु में सर्प की कल्पना (भ्रम) भी नही हो सकती । रज्जु में सर्प नहीं, पर सर्प में सर्प अवश्य होता है । इसी प्रकार जगत् व जीव भी क्रान्ति मात्र नहीं । प्रत्येक वस्तु जिसके संबन्ध में कुछ भी कल्पना की जा रही हैं वह अपने यथार्थ स्थान पर सत्य अवश्य है। अतः जीव तथा जगत् किसी प्रकार भी मिथ्या नहीं है।
१५. जब जगह ही मिथ्या है तो उसमें किए गए हर कार्य मिथ्या ही होंगे। फिर परमात्मा किस प्रकार मनुष्य के बुरे कर्म का दंड देता होगा?क्योंकि जीतने भी बुरे अच्छे कर्म मनुष्य करता है।वो समीक्षा ही है।जैसे एक गेम के अंदर होता है।आप किसी की हत्या कर देते हैं, इससे आपको पुलिस पकड़ के नहीं ले जाती क्योंकि वो गेम मिथ्या है। इसी प्रकार यदि जगत है तो इसमें किए गए हर कार्य में था ही होंगे। फिर कर्मफल सिद्धांत लागू कैसे होता है?
१६. ब्रह्म जिस अज्ञान से जीव बना है, वह अज्ञान सारे ब्रह्म को अज्ञानी क्यों नहीं करता ? क्यों ब्रह्म के कुछ (किन्हीं) अंशो को ही ग्रसित करता है ?
१७. घटाकाश, मठाकाश का उदाहरण देकर बताया जाता है कि घट और मठ की उपाधि से आकाश पृथक्-पृथक् दिखाई देता है अन्यथा सब आकाश एक ही है। ऐसे ही सब कुछ ब्रह्म है, जीव अविद्या से प्रतीत हो रहा है। ऐसी युक्तियाँ निरर्थक हैं। कारण कि आकाश वास्तव में विभक्त नहीं होता और न घट और मठ का आकाश पृथक् - पृथक् है, पर जीव तथा ब्रह्म तो स्पष्टतया पृथक् माने जा रहे हैं । ब्रह्म व्यापक है, जीव एकदेशी, ब्रह्म कर्मफलदाता है ,जीव कर्मकर्ता व कर्म फल भोक्ता इत्यादि | अत: इस दृष्यन्त की जीव-ब्रह्म के साथ समानता नहीं है।
१८. घटाकाश और मठाकाश की उपाधि वाला दृष्यन्त तो स्वयं नवीन वेदान्तियों के विरुद्ध जाता है क्योंकि घट और मठ आकाश से पृथक् हैं । जैसे आकाश से भिन्न घट - मठ को स्वीकार करने पर ही घटाकाश - मठाकाश बनते हैं वैसे ही ब्रह्म से भिन्न अन्य किसी (अविद्या) की सत्ता मानने पर ही जीव माना जा सकेगा ऐसे में केवल ब्रह्म ही है यह सिद्धान्त खंडित हो जाता है।
१९. यह कहना कि “ब्रह्म ही उपाधि से ईश्वर व जीव बनता है,” असत्य है। जब ब्रह्म के बिना कुछ है ही नहीं तो उपाधि कहाँ से आ गई ? जब साधारण सा ज्ञानी मनुष्य उपाधि, व्याधि से बचकर सुखपूर्वक रह सकता है, तो ज्ञान स्वरूप, सर्वशक्तिमान् ब्रह्म उपाधि का शिकार हो जावे, यह कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
२०. यह कहना कि “उपाधि"अविद्या माया का सम्बन्ध टूटने पर अपने स्वरूप का ज्ञान होता है और जीव फिर ब्रह्म हो जाता है,” सत्य नहीं है । इससे तो जीव, ब्रह्म से अधिक ज्ञानी और शक्तिशाली सिद्ध होता है। ब्रह्म को तो उपाधि ने नीचा दिखाया, पर जीव ने उस उपाधि को बन्धन को तोड़ दिखाया ।
२१. जीव को ब्रह्म मानें तो चोरी, व्यभिचार आदि सब पापों को करने वाला ब्रह्म ठहरता है।
२२. उपाधि के विषय में यह कहा जाता है कि “यह अनिर्वचनीय है'' अर्थात् यह ज्ञान वाली है या अज्ञानी वाली कुछ कहा नहीं जा सकता । परन्तु ज्ञान स्वरूप ब्रह्म को अज्ञानी बनाने वाली उपाधि के अज्ञानयुक्त होने में क्या संदेह हो सकता है । उपाधि को अनिर्वचनीय बताना ही इस बात का प्रमाण है कि नवीन वेदान्तियों को अपने मन्तव्यों की सत्यता पर स्वयं विश्वास नहीं ।
२३. यह कहना कि “ब्रह्म का प्रतिबिम्ब अन्त:करण पर पड़ता है, जिसे चिदाभास कहते हैं, यही जीव हे” सर्वथा असत्य है| प्रतिबिम्ब पड़ता है दूसरी वस्तु पर और नवीन वेदान्तियों के मत में ब्रह्म के बिना दूसरी वस्तु है ही नहीं, तो प्रतिबिम्ब पड़ा किस पर ? प्रतिबिम्ब जहाँ पड़ता है वहाँ वह वस्तु नहीं होती, इससे ब्रह्म के सर्वव्यापक न होने का दोष भी आयेगा।
२४. प्रतिबिम्ब पड़ता है साकार वस्तु का । पर ब्रह्म तो नियकार है उसका कोई रूप या आकार नहीं है, तो उसका प्रतिबिम्ब कैसा ?
२५. प्रतिबिम्ब पड़ता है फासले वाली चीज पर, परन्तु ब्रह्म सब में व्यापक है, कोई भी वस्तु उससे दूर नहीं, तब उसका प्रतिबिम्ब कैसा ? अन्त:करण के मेल से ब्रह्म का जीव बनता है ऐसी स्थिति में तो जहाँ- जहाँ अन्त:करण जायेगा वहाँ-वहाँ का ब्रह्म जीव बनता जायेगा तथा पूर्व स्थान पर जहाँ जीव था वह ब्रह्म होता जायेगा | कभी जीव ब्रह्म बन जायेगा तो कभी ब्रह्म जीव बन जायेगा इस प्रकार सब क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहेगा | कर्म को करने वाला ब्रह्म/जीव भिन्न होगा व 'फल को भोगने वाला ब्रह्म / जीव भिन्न होगा । ऐसे में कर्मफल व्यवस्था व्यर्थ हो जायेगी, अन्याय का दोष भी आयेगा | करे कोई अन्य व भोगे कोई अन्य |
२६. यह कैसे हो जाता है कि जड़ अन्तःकरण ब्रह्म को जीव बना ले तथा वह स्वयं अविद्या से ग्रसित हो जावे ?
२७. अद्वैतवाद में किसी जीव पर विश्वास नहीं हो सकता कि वह कब तक जीव है। सम्भव है उसे अभी अन्तःकरण छोड़ दे और वह ब्रह्म बन जाये । ऐसी अवस्था में तो किसी राजा को किसी भी नीच से नीच अपराधी को दण्ड भी नहीं देना चाहिए क्योंकि यदि अन्त:करण ने उसे छोड़ दिया तो वही विशुद्ध ब्रह्म बन जायेगा ।
२८. अन्तःकरण के संयोग तथा वियोग से प्रत्येक क्षण ब्रह्म ज्ञानी तथा अज्ञानी बनता रहेगा | ऐसी स्थिति में तो ब्रह्म अखण्ड, एकरस, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् नहीं रहेगा।
२९. एक स्थान पर अन्तःकरण के मेल से ब्रह्म 'जीव' बनता है और उसी अन्तःकरण के दूसरे स्थान पर चले जाने से पूर्व जीव “ब्रह्म” बन जायेगा तो ऐसी अबस्था में पूर्व स्थान में की गई बातों का स्मरण नहीं रहना चाहिए, किन्तु ऐसा तो देखने में नहीं आता । प्रत्येक मनुष्य को अपने बाल्यावस्था तक की अनेक बातें स्मरण रहती हैं । अन्तःकरण तो जड़ है, जड़ कभी स्मरण नहीं रखता, स्मरण तो चेतन ही रखेगा । और चेतन बार-बार बदल रहा है तो एक के अनुभव का दूसरे को स्मरण कैसे होगा ?
३०. यदि ब्रह्म ही जीव बना है तो जीव को भी सर्वत्र सर्वशक्तिमान होना चाहिए, क्योंकि स्वाभाविक गुणों का कभी नाश नहीं होता ।
३१. कहा जाता है कि चेतन होने से जीव तथा ब्रह्म एक हैं, दो पृथक्-पृथक् नहीं हैं । परन्तु केवल एक गुण समान होने से दो पदार्थ एक नहीं माने जा सकते । जैसे भार वाला होने से अमरूद व सेब एक नहीं हो जाते । जीव तथा ब्रह्म के अनेक गुण परस्पर भिनन भी हैं जैसे जीव एकदेशी, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान् है किन्तु ब्रह्म सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान् है । मात्र एक या कुछ गुणों की समानता से दोनों को एक मान लेना अविद्या (अज्ञान) है।
३२. यह अविद्या ऐसी बात लगती है कि स्त्री भी ब्रह्म और पुरुष भी ब्रह्म, रोटी भी ब्रह्म और मल भी ब्रह्म, चोर भी ब्रह्म और पुलिस भी ब्रह्म । ऐसी अवस्था में तो धर्माधर्म, सुख-दुःख आदि की विवेचना भी नहीं हो सकती | पेड़ा भी ब्रह्म गोबर भी ब्रह्म, तो फिर पेड़ा मुख में पड़ें तो निगलते क्यों और गोबर पड़े तो थूकते क्यों हैं ?

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