काशी शास्त्रार्थ

 अथ काशी-शास्त्रार्थ:

धर्माधर्मयोर्मध्ये शास्त्रार्थविचारो विदितो भवतु। एको दिगम्बर-स्सत्यशास्त्रार्थविदयानन्दसरस्वती स्वामी गड्भातटे विहरति। सऋ्वेदादिसत्यशास्त्रेभ्यो निशचयं कृत्वैवं वदति--' वेदेषु पाषाणादि-मूर्त्तिपूजनविधानं शैवशाक्तगाणपतवैष्णवादिसम्प्रदाया रुद्राक्षत्रिपुंड्रादि-धारणं च नास्त्येव तस्मादेतत्‌ सर्व मिथ्यैवास्ति, नाचरणीयं कदाचित्‌।कुतः ? एतद्‌ वेदविरुद्धाप्रसिद्धाचरणे महत्पापं भवतीतीयं वेदादिषुमर्यादा लिखितास्ति।''

एक दयानन्द सरस्वती नामक सन्यासी दिगम्बर गंगा के तीर विचरतेरहते हैं, जो सत्पुरुष और सत्यशात्त्रों के वेत्ता हैं। उन्होंने सम्पूर्ण ऋग्वेदादिका विचार किया है, सो ऐसा सत्यशास्त्रों को देख निश्चय करके कहतेहैं कि ““पाषाणादि मूर्तिपजन, शैव, शाक्त, गाणपत और वैष्णव आदिसम्प्रदायों और रुद्राक्ष, तुलसी माला, त्रिपुण्ड्रादि धारण का विधान कहींभी वेदों में नहीं है, इससे ये सब मिथ्या ही हैं, कदापि इनका आचरणन करना चाहिए। क्योंकि वेदविरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध के आचरणसे बड़ा पाप होता है, ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है।'

एवं हरद्वारमारभ्य गड्जतटे अन्यत्रापि यत्र-कुत्रचिद्‌ दयानन्द-सरस्वती स्वामी खण्डनं कुर्बन्‌ सन्‌ काशीमागत्य दुर्गाकुण्डसमीपआनन्दारामे यदा स्थितिं कृतवान्‌ तदा काशीनगरे महान्‌ कोलाहलोजातः | बहुभिः पण्डितेर्वेदादिपुस्तकानां मध्ये विचार: कृतः, क्वापिपाषाणादिमूर्त्तिपूजनादि विधानं न लब्धम्‌।

इस हेतु से उक्त स्वामीजी हरद्वार से लेकर सर्वत्र इसका खण्डनकरते हुए काशी में आके दुर्गाकुण्ड के समीप आनन्दबाग में स्थित हुए।उनके आने की धूम मची, बहुत से पण्डितों ने वेदों के पुस्तकों में विचारकरना आरम्भ किया, परन्तु पाषाणादि मूर्तिपूजा का विधान कहीं भी किसीको न मिला।

प्रायेण बहूनां पाषाणपूजनादिष्वाग्रहो महानस्ति, अत: काशीराज-महाराजेन बहून्‌ पण्डितानाहूय पृष्टे किं कर्त्तव्यमिति ? तदा सर्वेर्जनै निश्चय: कृतो येन केन प्रकारेण दयानन्दस्वामिना सह शास्त्रार्थ कृत्वाबहुकालातू प्रवृत्तस्याचारस्य स्थापनं भवेत्‌ तथा कर्त्तव्यमेवेति।

बहुधा करके इसके पूजन में आग्रह बहुतों को है। इससे काशीराजमहाराज ने बहुत से पण्डितों को बुलाकर पूछा कि इस विषय में क्‍याकरना चाहिये ? तब सब ने ऐसा निश्चय करके कहा कि किसी प्रकारसे दयानन्द सरस्वती स्वामी के साथ शात्त्रार्थ करके बहुकाल से प्रवृत्तआचार को जैसे स्थापन हो सके, करना चाहिये।

पुनः कारत्तिकशुक्लद्दवादश्यामेकोनविंशतिशतषड्विंशतितमेसंवत्सरे ( १९२६ ) मड्गलवासरे महाराज: काशीनरेशो बहुभि: पण्डितेःसह शास्त्रार्थकरणार्थमानन्दारामं यत्र दयानन्दस्वामिना निवास: कृतःतत्रागतः।'तदा दयानन्दस्वामिना महाराज प्रत्युक्तम्‌--वेदानां पुस्तकान्या-नीतानि न वा ?

निदान कार्तिक सुदी १२ सं० १९२६ मड्गलवार को महाराज काशीनरेशबहुत से पण्डितों को साथ लेकर जब स्वामीजी से शात्त्रार्थ करने के हेतुआए तब दयानन्द स्वामीजी ने महाराज से पूछा कि आप वेदों की पुस्तकले आए हैं वा नहीं ?

तदा महाराजेनोक्तम्‌--वेदाः पण्डितानां कण्ठस्था: सन्ति किंप्रयोजन पुस्तकानामिति।

महाराज ने कहा कि वेद सम्पूर्ण पण्डितों को कण्ठस्थ हैं, पुस्तकोंका क्‍या प्रयोजन है?

तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्‌--पुस्तकैर्विना, पूर्वापरप्रकरणस्ययथावद्विचारस्तु न भवति।अस्तु तावत्‌ पुस्तकानि नानीतानि।

तब दयानन्द सरस्वतीजी ने कहा कि पुस्तकों के विना पूर्वापरप्रकरण का विचार ठीक-ठीक नहीं हो सकता, भला पुस्तक नहीं लाए तोनहीं सही परन्तु किस विषय पर विचार होगा ?पण्डितों ने कहा कि तुम मूर्तिपूजा का खण्डन करते हो, हम लोगउसका मण्डन करेंगे।पुनः स्वामीजी ने कहा कि जो कोई आप लोगों में मुख्य हो, वही एक पण्डित मुझसे संवाद करे।

तदा पण्डितरघुनाथप्रसादकोटपालेन नियमः कृतो दयानन्द-स्वामिना सहैकैक: पण्डितो बदतु न तु युगपदिति।

'पण्डित रघुनाथप्रसाद कोतवाल ने यह नियम किया कि स्वामीजीसे एक-एक पण्डित विचार करे।

'तदादौ ताराचरणनैयायिको विचारार्थमुद्यतः, तं प्रति स्वामि-दयानन्देनोक्तम्‌--युष्माकं वेदानां प्रामाण्यं स्वीकृतमस्ति न वेति ?

पुन: सब से पहिले ताराचरण नैयायिक स्वामीजी से विचार के हेतुसम्मुख प्रवृत्त हुए।स्वामीजी ने उनसे पूछा कि आप वेदों का प्रमाण मानते हैं वा नहीं ?

तदा ताराचरणेनोक्तम्‌---सर्वेषां वर्णाश्रमस्थानां वेदेषु प्रामाण्य-स्वीकारोउस्तीति।

उन्होंने उत्तर दिया कि जो वर्णाश्रम में स्थित हैं, उन सबको वेदोंका प्रमाण ही है।

तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्‌--वेदे पाषाणादिमूर्तिपूजनस्य यत्रप्रमाणं भवेत्तदर्शनीयम्‌, नास्ति चेद्दद नास्तीति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि कहीं वेदों में पाषाणादि मूर्तियों केपूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि हो तो दिखाइये, और जो नहीं तो कहिये कि नहीं है।

तदा ताराचरणभट्टाचार्येणोक्तम्‌--वेदेषु प्रमाणमस्ति वा नास्तिपरन्तु वेदानामेव प्रामाण्यं नान्येषामिति यो ब्रूयात्तं प्रति कि बदेत्‌ ?

'पण्डित ताराचरण ने कहा कि वेदों में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जोएक वेदों ही का प्रमाण मानता है और का नहीं, उसके प्रति क्या कहना चाहिये ?

तदा स्वामिनोक्तम्‌--अन्यो विचारस्तु पश्चात्‌ भविष्यति बेद-विचार एव मुख्योअस्ति तस्मात्‌ स एवादौ कर्त्तव्यः, कुतो वेदोक्तकर्मैंवमुख्यमस्त्यतः | मनुस्मृत्यादीन्यपि वेदमूलानि सन्ति तस्मात्तेषामपिप्रामाण्यमस्ति न तु वेदविरुद्धानां वेदाप्रसिद्धानां चेति।

# इससे यह समझना कि स्वामीजी भी वर्णाश्रमस्थ हैं, वेदों को मानते हैं।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि औरों का विचार पीछे होगा, वेदों का विचार मुख्य है, इस निमित्त से इसका विचार पहिले ही करना चाहिये,क्योंकि वेदोक्त ही कर्म्म मुख्य है। और मनुस्मृति आदि भी वेदमूलक हैं,इससे इनका भी प्रमाण है, क्योंकि जो-जो वेदविरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्धहै, उनका प्रमाण नहीं होता।

तदा ताराचरणभट्टाचार्येणोक्तम--मनुस्मृतेः क्वास्ति वेदमूल-मिति ?'पण्डित ताराचरण ने कहा कि मनुस्मृति का वेदों में कहाँ मूल है ?स्वामिनोक्तम्‌---' यद्वे किंचन मनुरवदत्तद्‌ भेषजं भेषजताया ' इतिसामवेदे*।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि जो-जो मनुजी ने कहा है, सो-सोऔषधों का भी औषध है, ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है*।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--रचनानुपपत्तेश्च नानुमान-मित्यस्य व्याससूत्रस्यथ कि मूलमस्तीति ?

विशुद्धानन्द स्वामीजी ने कहा कि रचना की अनुपपत्ति होने सेअनुमान-प्रतिपाद्य प्रधान, जगत्‌ का कारण नहीं, व्यासजी के इस सूत्र कावेदों में क्या मूल है ?

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--अस्य प्रकरणस्योपरि विचारो न कर्त्तव्यइति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि यह प्रकरण से भिन्‍न बात है, इस परविचार करना न चाहिये।

पुनर्विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--वदैव त्वं यदि जानासीति।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि यदि तुम जानते हो तो अवश्यकहो।

तदा दयानन्दस्वामिना प्रकरणान्तरे गमनम्भविष्यतीति मत्वानेदमुक्तम्‌। कदाचित्‌ कण्ठस्थं यस्य न भवेत्‌ स पुस्तकं दृष्टवा वदेदिति।

इस पर स्वामीजी ने यह समझ कर कि प्रकरणान्तर में वार्त्ता जा रही है, इससे न कहा, जो कदाचित्‌ किसी को कण्ठ न हो तो पुस्तकदेखकर कहा जा सकता है।

# पण्डितानामेव मतमन्जीकृत्योक्तमतो नेदं स्वामिनो मतमिति वेद्यम्‌। # यह कहना उन पण्डितों के मत के अनुसार ठीक है, परन्तु स्वामीजी तो ब्राह्मणपुस्तकों को वेद नहीं मानते किन्तु मन्त्रभाग ही को वेद मानते हैं।   

'तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--कण्ठस्थं नास्ति चेच्छास्त्रार्थ कर्तु'कथमुद्यतः काशीनगरे चेति।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि जो कण्ठस्थ नहीं है तो काशीनगर में शास्त्रार्थ करने को क्‍यों उद्यत हुए?

तदा स्वामिनोक्तम्‌-- भवतः सर्व कण्ठस्थं वर्त्तत इति ?

इस पर स्वामीजी ने कहा कि क्‍या आपको सब कपण्ठाग्र है?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--मम सर्व कण्ठस्थं वर्त्तत इति।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि हाँ हमको सब कण्ठस्थ है।

तदा स्वामिनोक्तम्‌-- धर्मस्य किं स्वरूपमिति ?

इस पर स्वामीजी ने कहा कि कहिये धर्म्म का क्‍या स्वरूप है?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--वेदप्रतिपाद्य: प्रयोजनवदर्थों धर्मइति।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि जो वेदप्रतिपाद्य फलसहित अर्थ है,वही धर्म कहलाता है।

स्वामिनोक्तम्‌--इदन्तु तब संस्कृतं नास्त्यस्य प्रामाण्यं कण्ठस्थांश्रुतिं स्मृति वा बदेति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि यह आपका संस्कृत है इसका क्‍याप्रमाण, श्रुति स्मृति कहिये।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌---' ' चोदनालक्षणार्थों धर्म: '' इतिजैमिनिसूत्रमिति* ।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि जो ““चोदनालक्षण अर्थ है, सो धर्मकहलाता है।”” यह जैमिनि का सूत्र है।

तदा स्वामिनोक्तम्‌ -चोदना का चोदना नाम प्रेरणा तत्रापिश्रुतिर्वा स्मृतिर्वक्तव्या यत्र प्रेरणा भवेत्‌।

स्वामीजी ने कहा कि यह सूत्र है, यहां श्रुति वा स्मृति को कण्ठ क्‍यों नहीं कहते ? और चोदना नाम प्रेरणा का है, वहाँ भी श्रुति वा स्मृति कहना चाहिये, जहाँ प्रेरणा होती है।

१. इदन्तु सूत्रमस्ति, नेयं श्रुतिर्वा स्मृतिः, सर्व मम कण्ठस्थमस्तीति प्रतिज्ञायेदानीं'कण्ठस्थं नोच्यत इति प्रतिज्ञाहानेस्तस्थ कुतो न पराजय इति बोध्यम्‌।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिना किमपि नोक्तम्‌।

तब इसमें विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा।'

तदा स्वामिनोक्तम्‌--अस्तु तावद्धर्मस्वरूपप्रतिपादिका श्रुतिर्वास्मृतिस्तु नोक्ता किं च धर्मस्य कति लक्षणानि भवन्ति वदतु भवानीति ?

तब स्वामीजी ने कहा कि अच्छा आपने धर्म का स्वरूप तो न कहापरन्तु धर्म के कितने लक्षण हैं, कहिये ?

'तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--एकमेव लक्षणं धर्मस्येति।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि धर्म का एक ही लक्षण है।

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--किं चर तदिति ?

इस पर स्वामीजी ने कहा कि वह कैसा है?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिना किमपि नोक्तम्‌।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा।

तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्‌--धर्मस्य तु दश लक्षणानि सन्तिभवता कथमुक्तमेकमेवेति ?

तब स्वामीजी ने कहा कि धर्म्म के तो दश लक्षण हैं, आप एक ही क्यों कहते हैं?'

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌ कानि तानि लक्षणानीति ?तदा स्वामिनोक्तम्‌--धृतिः क्षमा दमोउस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।थीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌॥इति मनुस्मृते: शलोकोउस्ति*।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि वे कौन से दश लक्षण हैं?इस पर स्वामीजी ने मनुस्मृति का यह वचन कहा कि--घैर्य्य १,क्षमा २, दम ३, चोरी का त्याग ४, शौच ५, इन्द्रियों का निग्रह ६, बुद्धि७, विद्या का बढ़ाना ८, सत्य ९, और अक्रोध अर्थात्‌ क्रोध का त्याग १०,ये दश धर्म के लक्षण हैं, फिर आप कैसे एक ही लक्षण कहते हैं ? 

१. अत्रापि तस्य प्रतिज्ञाहानेर्निग्रहस्थानं बोध्यम्‌।

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्‌--अहं सर्व धर्म्मशास्त्रं पठितवानिति।तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्‌--त्वमधर्म्मस्य लक्षणानि वदेति।

तब बालशास्त्री ने कहा कि हाँ, हमने सब धर्मशास्त्र देखा है।इस पर स्वामीजी ने कहा कि आप अधर्म का लक्षण कहिये ?

तदा बालशास्त्रिणा किमपि नोक्तम्‌।

तब बालशास्त्रीजी ने कुछ भी उत्तर न दिया।

तदा बहुभिर्युगपत्‌ पृष्टम्‌--प्रतिमा शब्दो वेदे नास्ति किमिति ?

फिर बहुत से पण्डितों ने इकट्ठे हल्ला करके पूछा कि वेद में प्रतिमाशब्द है वा नहीं ?

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--प्रतिमाशब्दस्त्वस्तीति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि प्रतिमा शब्द तो है।

तदा तैरुक्तम्‌--क्वास्तीति ?

फिर उन लोगों ने कहा कि कहाँ पर है ?

तदा स्वामिनोक्तम्‌--सामवेदस्य ब्राह्मणे चेति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि सामवेद के ब्राह्मण में है।

तदा तैरुक्तम्‌--किं च तद्बच्चनमिति ?

फिर उन लोगों ने कहा कि वह कौन-सा वचन है?

तदा स्वामिनोक्म्‌ू--देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ती-त्यादीनि।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि यह है--'' देवता के स्थान कम्पायमानऔर प्रतिमा हँसती है इत्यादि' |”!

तदा तैरुक्तम्‌--प्रतिमाशब्दस्तु वेदे* वर्तते भवान्‌ कथं खण्डनं'करोति ?

फिर उन लोगों ने कहा कि प्रतिमा शब्द तो वेदों में भी है, फिर आपकैसे खण्डन करते हैं।

तदा स्वामिनोक्तम्‌-प्रतिमाशब्देनेव पाषाणपूजनादे: प्रामाण्यं न भवति, प्रतिमा शब्दस्यार्थ: कर्त्तव्य इति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि प्रतिमा शब्द से पाषाणादि मूर्तिपूजनादिका प्रमाण नहीं हो सकता है, इसलिये प्रतिमा शब्द का अर्थ करना चाहिए,इसका क्‍या अर्थ है?

१. यह वेदवचन नहीं किन्तु सामवेद के षड्विंश ब्राह्मण का है परन्तु वहाँ भीयह प्रक्षिस है क्योंकि वेदों से विरुद्ध है।२. अतन्रापि तेषामवेदे ब्राह्मणग्रन्थे वेदबुद्धित्वाद्‌ 'तुब्ट्चित्ता भ्रान्तिरिवास्तीति वेद्यम्‌।

'तदा तैरुक्तम्‌ू--यस्मिन्‌ प्रकरणे5यं मन्त्रोडस्ति तस्य कोअर्थ इति ?

तब उन लोगों ने कहा कि जिस प्रकरण में यह मन्त्र है, उस प्रकरणका क्या अर्थ है?'

तदा स्वामिनोक्तम्‌--अथातोद्भुतशान्ति व्याख्यास्याम इत्युपक्रम्यजातारमिन्द्रमित्यादयस्तत्रेव सर्वे मूलमन्त्रा लिखिताः, एतेषां मध्यात्‌प्रतिमन्त्रेण त्रित्रिसहस्त्राण्याहुतय: कार्यास्ततो व्याहृतिभि: पठ्चपज्चाहुत-यश्चेति लिखित्वा सामगानं च लिखितम्‌। अनेनैव कर्म्मणाद्भुतशान्ति-विंहिता। यस्मिन्मन्त्रे प्रतिमाशब्दो5स्ति स मन्त्रो न मर्त्यलोकविषयोडपितु ब्रह्मलोकविषय एवं तद्यथा--''स प्रा््रीं दिशमन्वावर्त्तते3थेति''प्राच्या दिशोद्भुतदर्शनशान्तिमुक्त्वा ततो दक्षिणस्या दिशः शान्तिकथयित्वा उत्तरस्या दिशः शान्तिरुक्ता, ततो भूमेश्चेति मर्त्यलोकस्यप्रकरणं समाप्यान्तरिक्षस्य शान्तिरुकता, ततो दिवश्च शान्तिविधान-मुक्तम्‌, ततः परस्य स्वर्गस्यथ च नाम ब्रह्मलोकस्यैवेति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि यह अर्थ है--अब अद्भुत शान्ति कीव्याख्या करते हैं ऐसा प्रारम्भ करके फिर रक्षा करने के लिये, इन्द्र[त्रातारमिन्द्र] इत्यादि सब मूलमन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं,इनमें से प्रति मन्त्र करके तीन हजार आहुति करनी चाहियें, इसके अनन्तरव्याहति करके पांच-पांच आहुति करनी चाहियें, ऐसा लिख के सामगानभी करना लिखा है। इस क्रम करके अद्भुत शान्ति का विधान किया है।जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द है, सो मन्त्र मृत्युलोक विषयक नहीं किन्तुब्रह्मलोक विषयक है, सो ऐसा है कि “जब विघ्नकर्त्ता देवता पूर्व दिशामें वर्त्तमान होवे' इत्यादि मन्त्रों से अद्भुतदर्शन की शान्ति कहकर फिरदक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, और उत्तर दिशा, इसके अनन्तर भूमि कीशान्ति कहकर मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त कर अन्तरिक्ष की शान्तिकहके, इसके अनन्तर स्वर्गलोक फिर परमस्वर्ग अर्थात्‌ ब्रह्मलोक कीशान्ति कही है।
    इस पर सब चुप रहे।

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्‌ -यस्यां यस्यां दिशि या या देवता'तस्यास्तस्या देवताया: शान्तिकरणेन दृष्टविघ्नोपशान्तिर्भवतीति।

फिर बालशास्त्री ने कहा कि जिस-जिस दिशा में जो-जो देवता है,उस-उसकी शान्ति करने से अद्भुत देखनेवालों के विघ्न की शान्ति होतीहै।

तदा स्वामिनोक्तम्‌--इदं तु सत्यं परन्तु विघ्नदर्शयिता कोअस्तीति ?

इस पर स्वामीजी ने कहा कि यह सत्य है परन्तु इस प्रकरण में विघ्न दिखाने वाला कौन है ?

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्‌--इन्द्रियाणि दर्शायितृणीति।

तब बालशास्त्री ने कहा कि इन्द्रियां दिखाने वाली हैं।

तदा स्वामिनोक्तम्‌--इन्द्रियाणि तु द्रष्टूणि भवन्ति, न तु दर्शायि-तृणि परन्तु स प्राच्ीं दिशमन्वावर्त्ततेउथेत्यत्र स शब्दवाच्य: कोअस्तीति ?

इस पर स्वामीजी ने कहा कि इन्द्रियां तो देखने वाली हैं, दिखानेवाली नहीं परन्तु “स प्रा्वीं दिशमन्वावर्त्तते5थेत्यत्र '” इत्यादि मन्त्रों में“स' शब्द का वाच्यार्थ क्‍या है?

तदा बालशास्त्रिणा किमपि नोक्तम्‌।

तब बालशास्त्रीजी ने कुछ न कहा।

'तदा शिवसहायेन प्रयागस्थेनोक्तम्‌--अन्तरिक्षादिगमनं शान्ति-'करणस्य फलमनेनोच्यते चेति।

फिर पण्डित शिवसहायजी ने कहा कि अन्तरिक्ष आदि गमन, शान्तिकरने से फल इस मन्त्र करके कहा जाता है।

तदा स्वामिनोक्तम्‌-- भवता तत्प्रकरणं दूष्टे किम्‌ ? दृष्टे चेत्त्हि'कस्यापि मन्त्रार्थ वदेति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि आपने वह प्रकरण देखा है तो किसीमन्त्र का अर्थ तो कहिये ?

तदा शिवसहायेन मौन कृतम्‌।

तब शिवसहायजी चुप हो रहे।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--वेदाः कस्माज्जाता इति ?

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि वेद किससे उत्पन्न हुए हैं?

तदा स्वामिनोक्तम्‌--वेदा ईश्वराज्जाता इति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।

तदाविशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--कस्मादीश्वराज्जाता:?किं न्यायाशास्त्रोक्ताद्दवा योगशास्त्रोक्ताद्दा वेदान्तशास्त्रोक्ताद्वेति।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि किस ईश्वर से ?क्या न्यायशात्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से वा योगशात्त्र प्रसिद्ध ईश्वर सेअथवा वेदान्तशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से ? इत्यादि।

तदा स्वामिनोक्तम्‌--ईश्वरा बहवो भवन्ति किमिति ?

इस पर स्वामीजी ने कहा कि क्‍या ईश्वर बहुत से हैं ?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--ईश्वरस्त्वेक एवं परन्तु वेदाःकीदृग्लक्षणादीश्वराज्जाता इति ?

तब विशुद्धानन्द स्वामीजी ने कहा कि ईश्वर तो एक ही है परन्तु वेद कौन से लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं?

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--सच्चिदानन्दलक्षणादीश्वराद्वेदा जाता इति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि सच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर सेप्रकाशित भये हैं।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌ू--कोस्ति सम्बन्ध: ? किं प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभावो वा जन्यजनकभावो वा समवायसम्बन्धो वा स्व-स्वामिभाव इति तादात्म्यभावो वेति ?

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर और वेदों से क्‍यासम्बन्ध है? क्‍या प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव वा जन्यजनकभाव अथवासमवायसम्बन्ध वा स्वस्वामिभाव अथवा तादात्म्य सम्बन्ध हैइत्यादि ॥

तदा स्वामिनोक्तम्‌--कार्यकारणभाव: सम्बन्धश्चेति।

इस स्वामीजी ने कहा कि कार्य्यकारणभाव सम्बन्ध है।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--मनो ब्रह्मेत्युपासीत, आदित्यब्रह्मत्युपासीतेति यथा प्रतीकोपासनमुक्तं तथा शालिग्रामपूजनमपिग्राह्ममिति।

फिर विशुद्धानन्द स्वामीजी ने कहा कि जैसे मन में ब्रह्मबुद्धि औरसूर्य में ब्रह्मबुद्धि करके प्रतीक उपासना कही हैं, वैसे ही शालिग्राम के पूजन का ग्रहण करना चाहिये।  

तदा स्वामिनोक्तम्‌--यथा मनो ब्रह्मोत्युपासीत आदित्य॑ ब्रह्मेत्युपा-सीतेत्यादिवचन वेदेषु* दृश्यते तथा पाषाणादिल्रह्मेत्युपासीतेति वचनक्वापि वेदेषु न दृश्यते, पुनः कथ्थ॑ ग्राह्मम्भवेदिति ?

इस पर स्वामीजी ने कहा कि जैसे ““मनो ब्रह्मेत्युपासीत आदित्य॑ब्रह्मेत्युपासीत '” इत्यादि वचन वेदों* में देखने में आते हैं, वैसे '' पाषाणादिब्ह्मेत्युपासीत '” इत्यादि वचन वेदादि में नहीं देख पड़ता, फिर क्यों कर इसका ग्रहण हो सकता है?

'तदा माथवाचार्येणोक्तम्‌-- उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टा-पूर्तते सर सृजेथामयं च' इति मन्त्रस्थेन पूर्त्शब्देन कस्य ग्रहणमिति ?

तब माधवाचार्य्य ने कहा कि कि “उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहित्वमिष्टापूर्त्ते स'” इति, इस मन्त्र में पूर्त शब्द से किसका ग्रहण है ?

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--वापीकूपतडागारामाणामेव नान्यस्येति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि वापी, कूप, तड़ाग और आराम काग्रहण है।

'तदा माधवाचार्य्येणोक्तम्‌--पाषाणादिमूर्त्तिपूजनमत्र कथं न गृह्मतेचेति।

माधवाचार्य्य ने कहा कि इससे पाषाणादि मूर्त्तिपूजन का ग्रहण क्‍योंनहीं होता है ?

तदा स्वामिनोक्तम्‌-पूर्त्तशब्दस्तु पूर््तिवाची वर््तते तस्मान्नकदाचित्‌ पाषाणादिमूर्त्तिपूजनग्रहणं सम्भवति। यदि शझ्ज्ञास्ति तहिंनिरुक्तमस्य मन्त्रस्य पश्य ब्राह्मणं चेति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि पूर्त्त शब्द पूर्ति का वाचक है इससेकदाचित्‌ पाषाणादि मूर्त्तिपूजन का ग्रहण नहीं हो सकता, यदि श्र होतो इस मन्त्र का निरुक्त और ब्राह्मण देखिये।

'ततो माधवाचार्य्येणोक्तम्‌ू--पुराणशब्दो वेदेष्वस्ति न वेति ?

तब माध्वाचार्य्य ने कहा कि पुराण शब्द वेदों में है वा नहीं ?'

तदा स्वामिनोक्तम्‌--पुराणशब्दस्तु बहुषु स्थलेषु वेदेषु दृश्यते परन्तु पुराणशब्देन कदाचित्‌ ब्रह्मवेवर्त्तादिग्रन्थानां ग्रहणं न भवति,'कुतः ? पुराणशब्दस्तु भूतकालवाच्यस्ति सर्वत्र द्रव्यविशेषणं चेति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि पुराण शब्द तो बहुत सी जगह वेदोंमें है, परन्तु पुराण शब्द से ब्रह्मवैवर्त्तादिक ग्रन्थों का कदाचित्‌ ग्रहण नहींहो सकता, क्योंकि पुराण शब्द भूतकालवाची है और सर्वत्र द्रव्य काविशेषण ही होता है।

 १. इदमपि पण्डितमतानुसारेणोक्तम्‌, नेदं स्वामिनो मतमिति वेद्यम्‌।
२. यह भी उन्हीं पण्डितों का मत है, स्वामीजी का नहीं क्योंकि स्वामीजी तोब्राह्मण पुस्तकों को ईश्वरकृत नहीं मानते।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌-- 'एतस्य महतो भूतस्य निःश्व-सितमेद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोथर्व्वाड्रिरस इतिहास: पुराणं शलोकाव्याख्यानान्यनुव्याख्यानानि '' इत्यत्र बृहदारण्यकोपनिषदि पठितस्यसर्वस्य प्रामाण्यं वर्त्तते न वेति ?

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि बृहदारण्यक उपनिषद्‌ के इसमन्त्र में कि “एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद:सामवेदो< थर्वाज्विरस इतिहास: पुराणं श्लोका व्याख्यानान्यनुव्याख्यानानीति '!यह सब तो पठित है इसका प्रमाण है वा नहीं।

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--अस्त्येव प्रामाण्यमिति।

इस पर स्वामीजी ने कहा--हाँ प्रमाण है।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--श्लोकस्यापि प्रामाण्यं चेत्तदासर्वेषां प्रामाण्यमागतमिति।

फिर विशुद्धानन्द जी ने कहा कि यदि श्लोक का भी प्रमाण है तो सबका प्रमाण आया।'

तदा स्वामिनोक्तम्‌्--सत्यानामेव एलोकानां प्रामाण्यं नान्येषा-मिति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि सत्य श्लोकों का ही प्रमाण होता है,औरों का नहीं।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--अत्र पुराणशब्द: कस्यविशेषणमिति ?

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि यहां पुराण शब्द किसका विशेषणहै?

तदा स्वामिनोक्तम्‌--पुस्तकमानय पश्चाद्विचार:ः कर्त्तव्य इति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि पुस्तक लाइये तब इसका विचार हो। 

तदा माधवाचार्य्येण वेदस्य* द्वे पत्रे निस्सारिते, अत्र पुराणशब्दः'कस्य विशेषणमित्युक्त्वेति।

माधवाचार्य ने वेदों के दो पत्रे' निकाले, और कहा कि यहां पुराणशब्द किस का विशेषण है ?

तदा स्वामिनोक्तम्‌--कीदृशमस्ति वचन पठ्यतामिति।

स्वामीजी ने कहा कि कैसा वचन है पढ़िये।

तदा माधावचार्य्येण पाठ: कृतस्तत्रेदं वचचनमस्ति “ब्राह्मणा-नीतिहासः पुराणानीति ''।

तब माध्वाचार्य्य ने यह पढ़ा “ब्राह्मणानीतिहासान्‌ पुराणानीति !।

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--पुराणानि नाम सनातनानीति विशेषणमिति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि यहां पुराण शब्द ब्राह्मण का विशेषण है अर्थात्‌ पुराने नाम सनातन ब्राह्मण हैं।

तदा बालशास्त्र्यादिभिरुक्तम्‌--ब्राह्मणानि नवीनानि भवन्तिकिमिति।

तब बालशास्त्रीजी आदि ने कहा कि ब्राह्मण कोई नवीन भी होतेहैं?

'तदा स्वामिनोक्तम्‌--नवीनानि ब्राह्मणानीति कस्यचिच्छल्ठापिमाभूदिति विशेषणार्थ:।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि नवीन ब्राह्मण नहीं हैं, परन्तु ऐसी शंका किसी को न हो इसलिये यहां यह विशेषण कहा है।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--इतिहासशब्दव्यवधानेन कथ्थंविशेषणं भवेदिति ?

तब विशुद्धानन्द स्वामीजी ने कहा कि यहां इतिहास शब्द से व्यवधानहोने से कैसे विशेषण होगा ?

'तदा स्वामिनोक्तम्‌---अयं नियमो5स्ति कि व्यवधानाद्विशेषणयोगोन भवेत्सन्निधानादेव भवेदिति ?““अजो नित्यश्शाश्वतो5यम्पुराणो न' इति दूरस्थस्य देहिनो काशीशास्त्रार्थ: ब्द्७विशेषणानि गीतायां कथम्भवन्ति ? व्याकरणे5पि नियमो नास्तिसमीपस्थमेव विशेषणं भवेन्न दूरस्थमिति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि क्या ऐसा नियम है कि व्यवधान सेविशेषण नहीं होता और अव्यवधान ही में होता है, क्योंकि [गीता के]“* अजो नित्य: शाश्वतो5यं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे'” इस श्लोकमें दूरस्थ देही का भी क्या विशेषण नहीं है ? और कहीं व्याकरणादि मेंभी यह नियम नहीं किया है कि समीपस्थ ही विशेषण होते हैं, दूरस्थनहीं।

१. इदमपि पण्डितानां मतम्‌, नैव स्वामिन इति वेद्यम्‌।
२. यह भी उन्हीं का मत है, स्वामीजी का नहीं क्योंकि ये गृह्मयसूत्र के पत्रे थे।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्‌--इतिहासस्यात्र पुराणशब्दोविशेषणं नास्ति तस्मादितिहासो नवीनो ग्राह्मः किमिति ?

तब विशुद्धानन्द स्वामीजी ने कहा कि यहां इतिहास का तो पुराणशब्द विशेषण नहीं है, इससे क्या इतिहास नवीन ग्रहण करना चाहिये।

तदा स्वामिनोक्तम्‌---अन्यत्रास्तीतिहासस्य पुराणशब्दो विशेषणंतद्यथा--' इतिहास: पुराण: पञ्चमो वेदानां वेद: ' इत्युक्तम्‌।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि और जगह पर इतिहास का विशेषणपुराण शब्द है--सुनिये ““इतिहासपुराण: पञ्चमो वेदानां वेद: * '” इत्यादिमें कहा है।

'तदा वामनाचार्यादिभिरयं पाठ एव वेदे नास्तीत्युक्तम्‌।

तब वामनाचार्य आदिकों ने कहा कि वेदों में यह पाठ ही कहीं भीनहीं है।

'तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्‌--यदि वेदेष्वयम्पाठो * न भवेच्चेन्मम'पराजयो यद्यम्पाठो वेदे यथावद्धवेत्तदा भवताम्पराजयश्चेयम्प्रतिज्ञालेख्येत्युक्तन्तदा सर्वैमौन॑ कृतमिति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि यदि वेद में यह पाठ न होवे तो हमारा पराजय हो और जो हो तो तुम्हारा पराजय हो यह प्रतिज्ञा लिखो, तब सबचुप हो रहे।

. [छा० उ० प्रपा० ७ ख० १ प्रवाक्‌ ४ में ऐसा पाठ है] सं०।
२. इदमपि तन्मतमनुसृत्योकतं नेदं स्वामिनो मतमिति वेदितव्यम्‌।
३. यह उन्हीं पण्डितों के मतानुसार कहा है किन्तु स्वामीजी तो छान्दोग्य उपनिषद्‌को वेद नहीं मानते।  
तदा स्वामिनोक्तम्‌--इदानीं व्याकरणे कल्मसंज्ञा क्वापि लिखितान वेति ?

इस स्वामीजी ने कहा कि व्याकरण जानने वाले इस पर कहें कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा करी है वा नहीं।

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्‌--एकस्मिन्‌ सूत्रे संज्ञा तु न कृता परन्तुमहाभाष्यकारेणोपहासः कृत इति।

तब बालशास्त्रीजी ने कहा कि संज्ञा तो नहीं की है परन्तु एक सूत्रमें भाष्यकार ने उपहास किया है।

तदा स्वामिनोक्तम्‌--कस्य सूत्रस्य महाभाष्ये संज्ञा तु न'कृतोपहासश्चेत्युदाहरण प्रत्युदाहरणपूर्वक॑ समाधान वदेति।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि किस सूत्र के महाभाष्य में संज्ञा तोनहीं की और उपहास किया है, यदि जानते हो तो इसके उदाहरण[ प्रत्युदाहरण] पूर्वक समाधान कहो ?

बालशास्त्रिणा किमपि नोक्तमन्येनापि चेति।

तब बालशास्त्री और औरों ने कुछ भी न कहा।

तदा माथवाचार्येण द्वे पत्रे वेदस्य* निस्सार्य्य सर्वेषां पण्डिता-नाम्भध्ये प्रक्षिप्ते, अत्र यज्ञसमाप्तो सत्यां दशमे दिवसे पुराणानां पाठंश्रेणुयादिति लिखितमत्र पुराणशब्द: कस्य विशेषणमित्युक्तम्‌।तदा विशुद्धानन्दस्वामिना दयानन्दस्वामिनो हस्ते पत्रे दत्ते।

माधवाचार्य ने दो पत्रे वेदों' के निकाल कर सब पण्डितों के बीचमें रख दिये और कहा कि यहाँ “यज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दशवें दिन पुराणों का पाठ सुने' ऐसा लिखा है। यहां पुराण शब्द किसका विशेषण है ? स्वामीजी ने कहा कि पढ़ो इसमें किस प्रकार का पाठ है ? जबकिसी ने पाठ न किया तब विशुद्धानन्दजी ने पत्रे उठा के स्वामीजी कीओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो।स्वामीजी ने कहा कि आप ही इसका पाठ कीजिये।

१. एते पत्रे तु गृह्मसूत्रस्य भवेतामिति।
२. पत्रे गृह्सूत्र के पाठ के थे, वेदों के नहीं।

तब विशुद्धानन्दजी ने कहा कि मैं ऐनक के विना पाठ नहीं करसकता, ऐसा कहके वे पत्रे उठाकर विशुद्धानन्दजी ने दयानन्द स्वामीजीके हाथ में दिये।

तदा स्वामी पढ्रे द्वे गृहीत्वा पठ्चक्षणमात्र विचारं कृतवान्‌। तत्रेदंवचन वर्तते--' “दशमे दिवसे यज्ञान्ते पुराणविद्यावेद:, इत्यस्य श्रवर्णंयजमानः कुर्य्यादिति ''।

इस पर स्वामीजी ने दोनों पत्रे लेकर विचार करने लगे। [वहां परइस प्रकार पाठ था “यज्ञ समाप्ति पर दशवें दिन यजमान पुराणविद्यावेदका श्रवण करे'”] इसमें अनुमान है कि ५ पल व्यतीत हुए होंगे कि-

-अस्यायमर्थ:--पुराणी चासौ विद्या च पुराणविद्या पुराणविद्येववेद: पुराणविद्यावेद इति नाम ब्रह्मविद्येव ग्राह्मा, कुतः?एतदन्यत्रग्वेंदादीनां श्रवणमुक्‍्तं न चोपनिषदाम्‌। तस्मादुपनिषदामेवग्रहणं नान्येषाम्‌। पुराणविद्यावेदो5पि ब्रह्मविद्येव भवितुमरहति नान्‍्येनवीना ब्रह्मवेवर्त्तादयो ग्रन्थाश्चेति । यदि होव॑ पाठो भवेद्‌ ब्रह्मवेवर्त्ताद-योडष्टादश ग्रन्था: पुराणानि चेति, क्वाप्येवं वेदेषु* पाठो नास्त्येवतस्मात्कदाचित्तेषां ग्रहणं न भवेदेवेत्यर्थकथनस्येच्छा कृता।

“पुरानी जो विद्या है उसे पुराणविद्या कहते हैं और जो पुराण विद्या वेद है वही पुराणविद्या वेद कहाता है, इत्यादि से यहां ब्रह्मविद्या ही का ग्रहण है क्योंकि पूर्व प्रकरण में ऋग्वेदादि चारों वेद आदि का तो श्रवण कहा है परन्तु उपनिषदों का नहीं कहा इसलिये यहां उपनिषदों का ही ग्रहण है, औरों का नहीं। पुरानी विद्या वेदों ही की ब्रह्मविद्या है, इससेब्रह्मवैवर्त्तादि नवीन ग्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते, क्योंकि जो यहाँ ऐसा पाठ होता कि ब्रह्मवैवर्त्ताद १८ (अठारह) ग्रन्थ पुराण हैं सो तो वेदमें? कहीं ऐसा पाठ नहीं है इसलिये कदाचित्‌ अठारहों का ग्रहण नहीं होसकता ”” ज्यों ही यह उत्तर कहना चाहते थे कि--' 

१. इदमपि तन्मतमेवास्ति न स्वामिन इति।
२. यह पण्डितों के मतानुसार कहा है, यह स्वामीजी का मत नहीं है। 

तदा विशुद्धानन्दस्वामी मम विलम्बो भवतीदानीं गच्छामीत्युक्त्वागमनायोत्थितोअभूत्‌ । ततः सर्वे पण्डिता उत्थाय कोलाहलं कृत्वा गता:।एवं च्व तेषां कोलाहलमात्रेण सर्वेषां निश्चयो भविष्यति दयानन्द- स्वामिन: पराजयो जात इति।अशथात्र बुद्धिमद्धिर्विचार: कर्त्तव्य:ः कस्य जयो जातः कस्य'पराजयश्चेति।दयानन्दस्वामिनश्चत्वारः पूर्वोक्ताः पूर्वपक्षास्सन्ति। तेषां चतुर्णाप्रामाण्यं नेव वेदेषु निःसृतं पुनस्तस्य पराजय: कथं भवेत्‌ ? पाषाणादि-मूर्तिपूजनरचनादिविधायकं वेदवाक्यं सभायामेते: सर्वैर्नोक्तम्‌।येषांवेदविरुद्धेषु वेदाप्रसिद्धेषु च पाषाणादिमूर्त्तिपूजनादिषुशैवशाक्तवैष्णवादिसम्प्रदायादिषु रुद्राक्षतुलसीकाष्ठमालाधारणादिषुत्रिपुण्ड्रोर्ध्यपुण्ड्रादिरचनादिषु नवीनेषु ब्रह्मवैवर्त्तादिग्रन्थेषु च महाना-ग्रहो5स्ति तेषामेव पराजयो जात इति तथ्यमेवेति।

विशुद्धानन्द स्वामी उठ खड़े हुए और कहा कि हमको विलम्ब होताहै हम जाते हैं।तब सब के सब उठ खड़े हुए. और कोलाहल करते हुए चले गये,इस अभिप्राय से कि लोगों पर विदित हो कि दयानन्द स्वामी का पराजय हुआ। परन्तु जो दयानन्द स्वामीजी के ४ पूर्वोक्त प्रश्न हैं उनका वेद मेंतो प्रमाण ही न निकला, फिर क्योंकर उनका पराजय हुआ!!॥ इति॥

 १. क्या किसी का भी इस शास्त्रार्थ से ऐसा निश्चय हो सकता है कि स्वामीजीका पराजय और काशीस्थ पण्डितों का विजय हुआ ? किन्तु इस शास्त्रार्थ से यह तो ठीक निश्चय होता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी का विजय हुआ और काशीस्थों का नहीं क्योंकि स्वामीजी का तो वेदोक्त सत्यमत है उसका विजय क्योकर न होवे ? काशीस्थ पण्डितों का पुराण और तंत्रोक्तमत जो पाषाणदि मूर्तिपूजादि है उनका पराजय होना कौन रोक सकता है ? यह निश्चय है कि असत्य पक्षवालों का पराजय और सत्यवालों का सर्वदा विजय होताहै॥ 


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