सांख्य नास्तिक दर्शन है?

 


नमस्ते सांख्य आस्तिक दर्शन है, या नास्तिक दर्शन इस पर विचार करेंगे। प्राचीन काल में किसी आचार्य ने सांख्य दर्शन पर क्या विचार रखा, इससे सांख्य का मत ज्ञात नहीं होता है। इससे केवल यह ज्ञात होता है, कि उन लोगों ने उस दर्शन को किस प्रकार समझा। सभी लोगों ने एक ही शास्त्र में अपनी-अपनी मान्यता घुसाने का प्रयास किया है। इससे उस ग्रंथ की मान्यता क्या है? क्या उस ग्रंथ में आपस में विरोध सिद्ध नहीं होता है?

अब शंकराचार्य ने मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया। इसका यह मतलब नहीं कि मीमांसा और वेदांत आपस में विरोधी हैं।  क्योंकि शंकराचार्य वेदांत को मानते थे और मंडन मिश्र मीमांसा को। आदि शंकर ने अपने वेदांत दर्शन में सांख्य का खंडन किया तो क्या सांख्य और वेदांत दर्शन एक दूसरे का विरोधी हो जायेंगे। रामानुजाचार्य ने आदि शंकर के भाष्य का खंडन कर दिया। अब क्या वेदांत दर्शन ही वेदांत दर्शन का विरोधी हो जाएगा, तो ऐसा मानना ठीक नहीं है। प्राचीन काल से लेकर अब तक बहुत सारे ग्रंथों के बहुत आचार्यों ने अपनी-अपनी टीका लिखी है। सब में कुछ ना कुछ विरोध है। इससे ग्रंथों में विरोध सिद्ध नहीं होता है। ग्रंथ क्या मानते थे, या उसके रचनाकार की मान्यता क्या है, यह तो उसके मूल वाक्य को देखकर ही ज्ञात होता है। 

 विज्ञान भिक्षु ने सांख्य सूत्र के समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता(5.116) के भाष्य में लिखता है:-


"हमारे शास्त्र में ब्रह्म शब्द उपाधि से प्राप्त मान्यता आदि रहित परिपूर्ण चेतना सामान्य वाची है, ये विवेक है।" अब यहां विज्ञान भिक्षु ने अपनी मान्यता घुसाई कि हम क्या मानते हैं, तो विज्ञान भिक्षु के मानने से या न मानने से सांख्य शास्त्र का क्या लेना-देना है। इस सूत्र में इनकी मान्यता नहीं पूछी जा रही यह कहते हैं, कि


"अपने स्वरूप में लीन हो जाना ही ब्रह्मरूपता है।" अब विचार करना चाहिए कि यदि सांख्यकार को यही अभिप्रेत था तब तो उनको समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु स्वरूपता ऐसा सूत्र बनाना चाहिए था। परंतु ब्रह्मरूपता शब्द लिखा है। इसका स्वरूप का अर्थ करना अपनी मनमानी करना ही है। 

विज्ञान भिक्षु के इस दोष से सांख्य दर्शन पर दोष नहीं लगता। अनिरुद्ध वृद्धि के अनुसार भी। विज्ञान भिक्षु का मत ठीक नहीं है।

ब्रह्मणा सह तुल्यरूपता, सर्वत्र बाह्यासंवेदनात्, न तु ब्रह्मरूपता ॥ अनिरुद्धवृति5.116

"ब्रह्म के साथ सामान रूपता हो जाती है। हर जगह बाह्य संवेदना होने से, ब्रह्म रूपता नहीं है।" अर्थात वह ब्रह्म नहीं है। ब्रह्म अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो आज किसी आचार्य पर विचार ना कर कि उन्होंने किस सूत्र पे कहां क्या लिखा है, सूत्र पर विचार करेंगे। 

सांख्य दर्शन को नास्तिक सिद्ध करने के लिए जो प्रमाण दिए जाते  हैं, उसकी भी समीक्षा हो जाएगी। सांख्य दर्शन ईश्वर को नहीं मानता। इसके पक्ष में जो एक प्रसिद्ध सूत्रर खा जाता है, वह पहले अध्याय का सूत्र है:- 

ईश्वरासिद्धेः (1.92)

 सूत्रार्थ - ईश्वरासिद्धेः =  ईश्वर के असिद्ध होने से।

इसका सीधा अर्थ है। ईश्वर के असिद्ध होने से, यहां से कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर असिद्ध है, परंतु जब आप इसके पूरे प्रकरण को पढ़कर विचार करेंगे, तो आपको यह ज्ञात हो जाएगा कि यहां ईश्वर सिद्ध नहीं है, या महामुनि कपिल ईश्वर को नहीं मानते, एसा नहीं है पीछे 89 के सूत्र में कहा:-

यत्सम्बद्धं सत्तदाकारोल्लेखिविज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् (1.89)

सूत्रार्थ - यत्सम्बन्धं सत् = जिसके साथ सम्बन्ध होता हुआ, तदाकारील्लेखि = उसी आकार को धारण करने वाला, (जो ) विज्ञानम् = विज्ञान है, तत् = वह, प्रत्यक्षम् = प्रत्यक्ष प्रमाण है। 

इसका अर्थ है वह विशिष्ट ज्ञान जो उस वस्तु से संबंध सिद्ध है। उस वस्तु के स्वरूप को दर्शाने वाला है, प्रत्यक्ष प्रमाण कहता है। यहां प्रत्यक्ष लक्षण में यत्सम्बद्धं ही कहा है। पुरुष का वस्तु के साथ संबंध द्वारा प्राप्त ज्ञान अध्यक्ष लक्षित किया है, उस वस्तु का पुरुष के साथ संबंध किस उपकरण से है, यहां स्पष्ट नहीं किया है। तो इस प्रत्यक्ष लक्षण में जो दोष प्रतीत होता है, आगे इस भ्रांति को दूर करते हैं:-

योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः(1.90)

 सूत्रार्थ– योगिनाम् = योगीजनों की, अबाह्यप्रत्यक्षत्वात् = आतंरिक अथवा अबाह्य प्रत्यक्ष होने से, न दोषः = कोई दोष नहीं है ।

योगी जन का अबाह्य प्रत्यक्ष होने से अर्थात आंतरिक प्रत्यक्ष होने से कोई दोष नहीं है। पूर्व सूत्र में प्रत्यक्ष का लक्षण किया। वहां प्रत्यक्ष शब्द से महर्षि कपिल को बाह्य तथा आंतरिक प्रत्यक्ष दोनों अभिप्रेत है। दूसरे सूत्र में उसी बात को कह रहे हैं कि नेत्र आदि इंद्रियों से  हमें बाह्य जगत का अनुभव होता ही है। परंतु योगी जनों का आंतरिक प्रत्यक्ष भी होता है। इसलिए प्रत्यक्ष की जो परिभाषा की है, उसमें कोई दोष नहीं है। आगे 

लीनवस्तुलब्धातिशयसम्बंधाद्वाऽदोषः (1.91)

सूत्रार्थ – वा = अथवा, लीनवस्तुलब्धातिशयसम्बन्धात् = लीनवस्तु (जो सभी वस्तुओं को अपने में लीन कर लेती है, ऐसी प्रकृति) के साथ अतिशय (योगज) सम्बन्ध से, अदोष: = कोई दोष नहीं है। 

लीन वस्तु अर्थात जो सभी वस्तुओं को अपने में लीन कर लेती है, ऐसी प्रकृति के साथ अतिशय  संबंध से कोई दोष नहीं है। इस सूत्र में पूर्व सूत्र में कहे गए आंतरिक प्रत्यक्ष तथा बाह्य प्रत्यक्ष की परिभाषा को पुष्ट कर रहे हैं। 

योगी जन  लीन वस्तु  को भी जान लेते हैं आंतरिक प्रत्यक्ष या अबाह्य प्रत्यक्ष के द्वारा। 

योग दर्शन में भी कहा:- 

परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥ (योग १.४०)

परमाणु और परम महत् पर्यंत योगी के इस चित का वशीकार होती है। 

अनिरुद्धवृत्ति और विज्ञानभिक्षु भाष्य में यहाँ प्रत्यक्षलक्षणप्रसङ्ग में नितान्त असत्य कल्पना की है। वहाँ " योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः ' [९०] इस सूत्र का दोनों में पूर्व प्रत्यक्षलक्षण से भिन्नविषयक व्याख्यान किया कि पूर्व तो ऐन्द्रियिक= बाह्य इन्द्रिय से साध्य लौकिक प्रत्यक्ष का लक्षण कहा, योगियों के अबाह्य प्रत्यक्ष का नहीं - " बाह्यप्रत्यक्षलक्षणमिदं लौकिकं योगिप्रत्यक्षं त्वबाह्यमलौकिकं च अतो नाव्यापकत्वदोषः” (अनिरुद्ध)=बाह्य प्रत्यक्षलक्षण है यह लौकिक है, किन्तु योगियों का प्रत्यक्ष तो अबाह्य और अलौकिक है, अतः अव्यापकत्व दोष नहीं है। “ऐन्द्रियिकप्रत्यक्षमेवात्र लक्ष्यं योगिनश्चाबाह्यप्रत्यक्षकाः, अतो न दोषः (विज्ञानभिक्षु)=ऐन्द्रियिक प्रत्यक्ष यहाँ लक्ष्य है। योगी अबाह्यप्रत्यक्षवाले होते हैं, अत: दोष नहीं। और फिर "लीनवस्तुलब्धातिशयसम्बन्धाद्वाऽ- दोष:'' (९१) इस सूत्रप्रसङ्ग में योगियों के प्रत्यक्ष का लक्षण भी उसी एक पूर्व सूत्र (८९) से मान लिया "अथवा लक्षणेन योगिप्रत्यक्षस्यापि संग्रह इति पक्षान्तरमाह-लीनवस्तु लब्धातिशयसम्बन्धाद्वाऽदोष!!" (अनिरुद्ध) अथवा इस लक्षण से योगियों के प्रत्यक्ष का भी संग्रह है यह पक्षान्तर से कहता है-लीनवस्तु सूत्र द्वारा दोष नहीं है। तथा "वास्तवं समाधानमाह - लीनवस्तुलब्धातिशयसम्बन्धाद्वाऽदोषः " (विज्ञानभिक्षु)= वास्तविक समाधान कहता है "लीनवस्तु....." सूत्र में ।अस्तु! 

क्या यह जो “योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोष: " (९०) तथा “लीनवस्तु-लब्धातिशयसम्बन्धाद्वाऽदोषः' (९१) ये दोनों सूत्र पूर्व कहे हुए “यत्सम्बन्धसिद्धं तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्" (८९) इस सूत्र के व्याख्यान रूप हैं, सांख्यकर्ता से भिन्न किसी व्याख्याकर्ता के हैं कि जो “योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः" (९१) सूत्र से असन्तोष को प्राप्त हो फिर वास्तविक समाधान “लीनवस्तुलब्ध......" (९०) इस वचन को सामने उपस्थित करता है ? क्या सूत्रकार की ओर से अवास्तविक समाधान होना चाहिए ? यह शिष्टाचार या सम्यगाचार साक्षात्कर्ता ऋषियों का नहीं होता। और फिर "योगिनाम०" (९०) "लीनवस्तु०" (९१) सूत्र तो सांख्यशास्त्र के हैं न कि किसी व्याख्याकार के वचन । अतः अनिरुद्धवृत्ति और विज्ञानभिक्षु के भाष्य में यह प्रसङ्ग न समझकर अन्यथा व्याख्यात किया गया है। इसी कारण आगे "ईश्वरासिद्धेः” (९२) इस सूत्र का व्याख्यान भी अयुक्त हुआ। वस्तुतः ईश्वर-साधन के लिये ही 'योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः " (९०) तथा “लीनवस्तुलब्धाति- शयसम्बन्धाद्वाऽदोष" (९१) इन सूत्रों से योगियों के अबाह्य प्रत्यक्ष= भीतरी प्रत्यक्ष का भी अन्तर्भाव पूर्व प्रत्यक्षलक्षण में है, यह दर्शाया गया । इसी कारण “यत्सम्बन्धसिद्धं तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् " (८९) सूत्र में 'यत्सम्बन्धसिद्धम्' सामान्यलक्षणपरक पद रखा। क्योंकि ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती वहाँ ईश्वरासिद्धि प्रसङ्ग न हो अतएव योगिप्रत्यक्ष से उसकी सिद्धि हो सके, इसलिये प्रत्यक्ष का सामान्य लक्षण सूत्र में निर्दिष्ट किया है। 'यत्सबन्धसिद्धम्' आत्मा का किसी उपकरण द्वारा या बिना उपकरण, जिस वस्तु के साथ सम्बन्ध से प्राप्त उसके स्वरूप का प्रकाशक ज्ञान 'प्रत्यक्ष' है। यह आश्चर्य है “ईश्वरासिद्धेः” (९२) सूत्र के अवतरण में विज्ञानभिक्षु ईश्वरसिद्धि में ऐन्द्रियिक प्रत्यक्ष के अव्याप्तिदोष का निराकरण करते हैं, 

ईश्वर का निषेध करके कि उस ईश्वर के "सन्निकर्षाजन्यत्वात्" सन्निकर्ष से अजन्य होने से परन्तु "सौक्ष्म्यादनुपलब्धिः" (१०९) सूत्र में “योगजधर्मस्य चोत्तेजकतया प्रकृतिपुरुषादीनां प्रत्यक्षप्रमा भवति” (विज्ञानभिक्षुः)=योगजधर्म की उत्कृष्टता से प्रकृति-पुरुष आदि की प्रत्यक्षप्रमा होती है। यदि ऐसा है तो ईश्वरविषय में प्रत्यक्ष का अव्याप्ति परिहार व्यर्थ हुआ, क्योंकि उसकी भी योगजधर्म से प्रत्यक्ष प्रमा हो सकती है 'सन्निकर्षाजन्यत्वात्' कथन का मूल्य न रहा ॥ ९१ ॥ 

प्रत्यक्ष से जो 89 ये सूत्र ने कहा योगियों का अबाह्य प्रत्यक्ष भी स्वीकार करना चाहिये। यदि योगियों का अबाह्य प्रत्यक्ष स्वीकार न करें, तो बाह्य  प्रत्यक्ष से:-

ईश्वरासिद्धेः॥(1.92)

ईश्वर असिद्ध हो जाएगा। अबाह्य प्रत्यक्ष न मानने परबाह्य प्रत्यक्ष से ईश्वर सिद्ध किया जावे तो और दोष दिखाते हैं:-

मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः ॥ (1.93)

वह ईश्वर मुक्त तथा बद्ध से भिन्न हो सकेगा।उसकी सिद्धि नहीं होगी। किसकी? तो अब  अबाह्य साध्य ईश्वर की। यहाँ मुक्त से जीवन मुक्त अर्थ लेंगे क्योंकि उसी का प्रत्यक्ष होता है, आगे और दोष दिखाते हैं:-

उभयथाप्यसत्करत्वम् ।। (1.94)

सूत्रार्थ = बद्ध या जीवन मुक्त व्यक्ति का ईश्वर मानने पर उन दोनों में ईश्वर की योग्यता सृष्टि रचना

आदि सिद्ध नहीं हो पाएगी, दोनों में यह सामर्थ्य नहीं होने से । 

दोनों अवस्थाओं में अर्थात् उन अवस्थाओं को जो पीछे सूत्र में कहा मुक्त तथा बद्ध अवस्थाओं में ईश्वर का असत्करतवं अयोग्यता निरर्थकता है। जगत रचानादी कार्य में अकिन्चित्कर्ता है, मुक्त का प्रायोजन न होने से बद्ध के सामर्थ्य के अभाव होने से।

पूर्वपक्षी कहें कि लोक मैं तो हमें प्रत्यक्ष प्रसिद्ध ईश्वर ज्ञात होता है, 

मुक्तात्मनः प्रशंसोपासासिद्धस्य वा (1.95)

सूत्रार्थ = शरीर धारी किसी व्यक्ति को यदि ईश्वर मान लें तो वह उस जीवन मुक्त अथवा योगाभ्यास उपासना आदि से विशिष्ट योग्यता प्राप्त बद्ध व्यक्ति की प्रशंसा मात्र है, वह वास्तविक ईश्वर नहीं है । 

वह तो केवल जीवन मुक्त या ध्यान उपासना से सिद्धि प्राप्त किए जीव की प्रशंसा मात्र अर्थात ऐसे जगत में बहुत देखने में आते हैं जैसे भगवान श्री कृष्ण, भगवान श्रीराम, भगवान विष्णु ये सब धरती पर जन्म लिए इनका बाह्य प्रत्यक्ष होता था।केवल इनकी प्रशंसा में इन्हें भगवान कहा जाता है। यह वास्तव में सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है। सिद्ध पुरुषों की प्रशंसा में उन्हें भगवान कहा जाता है। 

इसकी दो प्रकार से व्याख्या की है। एक बाह्य प्रत्यक्ष से ईश्वरा असिद्ध है। दूसरी व्याख्या इस प्रकार की जाती है की ईश्वर को यदि उपादान कारण माना जावे तो ऐसा ईश्वरा असिद्ध हैं। क्योंकि संख्य में जगह जगह प्रकृति ही उपादान कारण है। यहाँ ईश्वर की असिद्धि है, ऐसी व्याख्या संभव नहीं। कारण सांख्यकार तीसरे अध्याय में ईश्वर की सत्ता को मानते हैं। 

आगे का जो प्रकरण है उसमें क्योंकि ईश्वर नृत्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव वाला है, फिर वह प्रकृति का अधिष्ठाता कैसे हो जाता है, इस विषय पर विचार किया गया है। जो आज हमारा विषय नहीं है। 

पुर्वपक्षी:- जब 1.90 तथा 1.91 में ईश्वर को अबाह्य प्रत्यक्ष स्वीकार कर लिया, फिर ईश्वरा असिद्ध हो जाएगा, इस बात को कहना ठीक नहीं है। यह पुनरुक्ति दोष है, 

सिद्धान्ती:- यहाँ कोई दोष नहीं है, यह ग्रंथ की शैली है। पुनरुक्ति तो 1.91 में दूबारा कहने से ही हो जाएगी। महामुनि कपिल लिए एक ही तथ्य को विभिन्न प्रकार से सिद्ध करते हैं। ये हमको चौथे अध्याय में भी स्पष्ट दिखता है। जहाँ तक तो ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है उसको विभिन्न मार्ग द्वारा कहते हैं:-

राजपुत्रवत्तत्त्वोपदेशात् ॥ ४.१

आवृत्तिरसकृदुपदेशात् ॥४.२

पितापुत्रवदुभयोर्दृष्टत्वात् ॥४.३

पिशाचवदन्यार्थोपदेशेऽपि ॥४.४

वेद अपौरुषेय है, इसको भी दो बार कहा है:-

न पौरुषेयत्वं तत्कर्त्तुः पुरुषस्याभावात् ॥ ५.४६ ॥

नापौरुषेयत्वान्नित्यत्वमंकुरादिवत् ॥५.४८ ॥

केवल उपदेश सुनने मात्र से विरक्त तथा विवेक की सिद्धि नहीं होती। इसको भी तीन बार कहा है:-

न श्रवणमात्रात्तत्सिद्धिरनादिवासनाया बलवत्त्वात् ॥२.३ ॥

नोपदेश श्रवणेऽपि कृतकृत्यता परामर्शादृते विरोचनवत् ॥ ४.१७॥

लोकस्य नोपदेशात् सिद्धिः पूर्ववत् ॥ ६.५७ ॥

विवेक प्राप्त करने के लिए कोई काल कहा नियम नहीं हैं, इसको भी तीन बार कहा है:-

अधिकारिप्रभेदान्न नियमः ॥३.७६ ॥

न कालनियमो वामदेववत् ॥ ४.२० ॥

अधिकारित्रैविध्यान्न नियमः ॥ ६.२२ ॥

तथा स हि "सर्ववित सर्वकर्ता" कहने से ही जब ईश्वर की सिद्धि हो जाती है पुनः ईश्वर सिद्धि में सूत्र क्यों देना? ये सब कोई दोष नहीं है। ये तो महामुनि कपिल की शैली है कि वो एक ही तथ्य को अन्य हेतु से पुष्ट करते हैं। 

अचेतनत्वेऽपि क्षीरवच्चेष्टितं प्रधानस्य ॥ ३.५९॥

सूत्रार्थ= प्रकृति के अचेतन - जड़ होते हुए भी जीव का कल्याण करती है, ईश्वर के अधीन होने से। जैसे दूध जड होते हुए भी गाय की प्रेरणा से बछड़े को तृप्त करता है । 

पूर्वपक्षी:- यहाँ चेतन तो है परंतु अचेतन की कार्यशीलता चेतन के बिना ही है, क्योंकि दूध माता के प्रयत्न से प्रसूत नहीं होता अपितु अपने आप बालक के उपभोग के लिए प्रस्तुत होता है। इसी प्रकार जगत को ईश्वर ने नहीं बनाया। अपने आप प्रकृति जगत् रूप में परिवर्तित हो जाती है। ईश्वर के तरफ से कोई प्रेरणा नहीं होती।अपने पक्ष में एक और सूत्र देता है:-

कर्मवैचिर्त्यात् प्रधानचेष्टा गर्भदासवत् ।।३.५१। प्रकृति की जगत रूप बनाने की चेष्टा क्रम की विचित्रता से और प्रकृति की ये चेष्टा गर्भ दास के समान है अर्थात् हमेशा से है। 

सिद्धांती:- कहीं से भी कोई सूत्र उठाकर अपने मत की सिद्धि करना केवल मूर्खता ही है। वास्तव में इस सूत्र का क्या अर्थ है ये जानने के लिए हमें सांख्य के अन्य सूत्रों को देखना चाहिए। प्रधान चेष्टा से जगत आदि रूप में बदलता है और वहीं उसकी नियति भी है प्रकृति का स्वयं जगतरूप होना स्वाभाविक नहीं है। वो तो दूसरे के लिए होती है अर्थात जीवात्मा के लिए होती है। सांख्य में कहा:-

संहतपरार्थत्वात् पुरुषस्य ।। १.६६ ।।

सूत्रार्थ = संघात के " पर के" लिए होने से अर्थात दूसरे के प्रयोजन को सिद्ध करने वाला होने से
पुरुष का अनुमान होता है ।

प्रकृति के संघात से यह जगत बना है, वह दूसरे के लिए है। इससे पुरुष का अनुमान होता है। 

प्रकृति स्वयं कुछ नहीं कर सकती, पराधीन होने से 

अकार्यत्वेऽपि तद्योगः पारवश्यात् ॥ ३.५५ ॥

सूत्रार्थ - अकार्यत्वे = प्रकृति कार्य नहीं है, अपि = फिर भी, तद्योग: से), पारवश्यात् = ( जगत् में) परवश होने के कारण है।

प्राकृतिक कार्यरूप में न होने पर भी उसका रूपांतरण कार्यरूप में हो जाता है। पराधीन होने से अर्थात वो किसी दूसरे के नियंत्रण में अब विचार कीजिए। यदि प्रकृति स्वयं ही जगत बन जाए, फिर प्रकृति ईश्वर के नियंत्रण में है, ये कहना ही व्यर्थ हो जाएगा।फिर तो ये सूत्र ही निरर्थक हो जाएगा, परंतु जब ईश्वर इस जगत को बनाएगा तभी प्रकृति पर उसका नियंत्रण सिद्ध होगा।

पुनः प्रकृति स्वयं जगतरूप बन ही नहीं सकती। कारण संख्या ने ही कहा:- 

जडप्रकाशायोगात् प्रकाशः ।। १.१४५ ।।

सूत्रार्थ= जड़ वस्तु में ज्ञान का अभाव होने से और पुरुष ज्ञानवान होने से मोक्ष के लिए प्रयत्न करता 

अर्थात जड़ वस्तुओं में प्रकाश अर्थात ज्ञान गुण का अभाव होता है। अब बिना ज्ञान गुण के सृष्टि कैसे बन सकती है? "स हि सर्ववित् सर्वकर्ता ॥ ३.५६ ॥" इसमें ईश्वर को कर्ता कहा है। अब कहिये यदि प्रकृति स्वयं ही जगत बन जाए। तब तो ईश्वर को कर्ता कहना ही व्यर्थ हो जाएगा। दृष्टान्त से सामने वाला वक्ता जो कहना चाहता है, उतना ही अर्थ लेना चाहिए।

यहाँ इस दृष्टान्त का केवल इतना अर्थ है कि जिस प्रकार बिना माता के बालक दूध को ग्रहण नहीं कर सकता, उसी प्रकार बिना ईश्वर के जगत निर्माण नहीं हो सकता तथा आत्मा इसका उपभोग नहीं कर सकती। यहाँ महर्षि कपिल के कहने का तात्पर्य यही है। अन्य जगह संख्या में प्रकृति की तुलना ऊंट से की गई है।तो कोई मूर्ख ही होगा जो ऊंट को चेतन तथा प्रकृति को जड़ कह इस उदाहरण का खंडन करेगा। 

पूर्वपक्षी:- चेतन तो है, परंतु बुद्धिमान तथा ज्ञानवान नहीं है। तो उस चेतन ईश्वर की बुद्धिमत्ता तो इस विशाल जगत के निर्माण तथा इस पृथ्वी पर ही विभिन्न प्रकार की व्यवस्था तथा विचित्रता से सिद्ध हो जाती। अगले सत्र में कहा:- 

कर्मवद्दष्टेर्वा कालादेः ॥ ३.६० ॥

सूत्रार्थ - वाअथवा, कालादेः = काल (समय) आदि को, कर्मवत् = क्रियाओं के समान, दृष्टेः = देखा जाता है।

अथवा काल आदि के अनुसार कर्मों की गांवों की तरह प्रवृत्ति होती है। ऐसा देखे जाने से यहाँ केवल काल आदि के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से होता है। हर कार्य स्वयं ईश्वर नहीं करता। जैसे किसान खेत में बीज बोता है तो काल समयानुसार वह बीज से वृक्ष,वृक्ष से फल आदि रूप में परिवर्तित हो जाता है। उसी प्रकार ईश्वर की व्यवस्था से सारे कार्य होते हैं।अब संख्य में जहाँ महामुनि कपिल ने ईश्वर को दृढ़ता से स्वीकार किया है। उसको कहते हैं:-

प्रकृति स्वयं कुछ भी नहीं कर सकती पराधीन होने से

अकार्यत्वेऽपि तद्योगः पारवश्यात् ॥ ३.५५ ॥

प्रकृति के कार्य रूप में न होने पर भी वो कार्यरूप में बदल जाती है। पराधीन होने से 

अब वह प्रकृति किस के वश में है, उस पर कहते हैं:- 

स हि सर्ववित् सर्वकर्ता ॥ ५६ ॥

सूत्रार्थ – हि = क्योंकि, सः वह (ईश्वर), सर्ववित् = सर्वज्ञ - सर्वान्तर्यामी, सर्वकर्त्ता = सम्पूर्ण विश्व का रचयिता है।

जिसकी वजह में है प्रकृति है, वहाँ निश्चित रूप से सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर है। 

वो कौन है इसको और स्पष्ट करते हैं:- 

ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा ॥ ३.५७ ॥

इस प्रकार ईश्वर का अस्तित्व दृढ़तापूर्वक सिद्ध हैं। 

पूर्वपक्षी:- पारवश्यात् से कर्म के वश में हैं। 

सिद्धांती:-  ऐसा नहीं है,क्योंकि ये प्रकरण विरुद्ध प्रकरण में ईश्वर की बात चल रही है तो प्रकृति ईश्वर के वश में है। ऐसा अर्थ ही ठीक हैं। 

पूर्वपक्षी:- यदि ईश्वर को सर्वकर्ता मान ले तो सांख्य के पुरुष की स्वाभाविक निर्गुणता का बाध हो जाएगा। सांख्य में कहा:- "निर्गुणत्वान्न चिद्धर्मा ।। १.१४६।।" निर्गुण होने से आत्मा चेतन धर्म वाला नहीं है, क्योंकि आत्मा में चेतना नैमेंतिक नहीं है। "असंगोऽयं पुरुष इति ।। १.१५ ।।" यह पुरुष असंग है, 

सिद्धांती:-  पुरुष को असंग कहा गया है, निर्गुण कहा गया है तो कौन से गुण से रहित है? इस पर सांख्य स्वयं कहता है:-

त्रिगुणादिविपर्ययात् ॥। १.१४१ ।।

सूत्रार्थ = तीन गुणों से भिन्न होने से, और जड़ता, पराधीनता आदि गुणों से रहित होने के कारण पुरुष शरीर से भिन्न है ।

तीन गुणों से भिन्न है, इसीलिए निर्गुण है। सांख्य में सर्वत्र जिस तीन गुण की बात हो की गई है, वो क्या है :-

सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्म हतोऽहंकारोऽहंकारात्पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं तन्मात्रेभ्यःस्थूलभूतानि पुरुष इतिपञ्चविंशतिर्गणः ।। १.६१॥

अन्यत्र भी कहा:- 

ऊर्ध्वं सत्त्वविशाला ॥ ३.४८ ॥

मध्ये रजोविशाला ॥ ३.५० ॥

तमोविशाला मूलतः ॥ ३.४९ ॥

तो सत्व रज तम  इन तीन गुणों से पुरुष असंग रहता है। इसलिए निर्गुण है ईश्वर में कर्तृत्व मानने पर ईश्वरा असंग हैं तथा निर्गुण है, इस सिद्धांत की हानि नहीं होती। 

पूर्वपक्षी:- यदि कहो कि सर्वविदित पद से ईश्वर ही ग्रहण करेंगे क्योंकि ये उसी में संभव है तो ठीक नहीं है।कारण:- "परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥ योग ३.१६ ॥" योगियों में भी सिद्धि से तीनों काल का ज्ञान होता है।तो सर्ववित् पद से योगी को ग्रहण क्यों नहीं करते हो?

सिद्धांती:- सर्ववित् पद से ईश्वर का ही ग्रहण होगा, क्योंकि प्रकरण में ईश्वर ही चल रहा है। इसीलिए योगी का अर्थ ग्रहण नहीं कर सकते।

धर्म, लक्षण, अवस्था इन तीन परिणामों में संयम करने से अतीत (भूत) और अनागत (भविष्यत्) काल का ज्ञान होता है । योगी जिस विषय में संयम करता है उस विषय में सीमित ज्ञान हो जाता है । जैसे आजकल के भौतिक वैज्ञानिक वस्तुओं का सामान्य ज्ञान करते हैं कि यह भवन, पत्थर पुल आदि पदार्थ कितना पुराना है और आगे कितने समय तक चल सकेगा । इसी प्रकार से योगी भी भूत, भविष्यत् के पदार्थों का सीमित ज्ञान कर लेते हैं । परन्तु यह भवन, अथवा पुल कौन से क्षण में उत्पन्न हुआ था और कौन से क्षण में नष्ट हो जायेगा, क्षण सहित काल का ज्ञान नहीं कर सकते । चालीस वर्ष के पश्चात् इतने बजकर इतने मिनट में अमुक नामक व्यक्ति इस भवन को गिरा देवेगा । यह भी नहीं जान सकते । 

दूसरी बात चेतन पदार्थों के विषय में जाननी चाहिये । योगी वा भौतिक वैज्ञानिक यह नहीं जान सकता कि यह देवदत्त नाम का व्यक्ति चालीस वर्ष के पश्चात् इतने बजे, इतने मिनट पर विष खाकर मर जायेगा । क्योंकि विष खाकर मरने वाले व्यक्ति के मन में भी यह बात नहीं है, कि मैं विष खाकर इस समय मरूँगा । जब यह बात उसके मन में ही नहीं है तो योगी उसको कैसे जानेगा ? चालीस वर्ष से लेकर आज तक किसी व्यक्ति ने मन, वचन और शरीर से कितने अच्छे और कितने बुरे कर्म कब, कहाँ पर किये हैं, यह योगी नहीं जान सकता । इसी प्रकार से किसी व्यक्ति के भविष्य में होने वाले कर्मों के विषय में भी नहीं जान सकता । कभी कभी किसी व्यक्ति के कर्मों के विषय में किसी कर्म का सामान्य ज्ञान हो सकता है । सांसारिक व्यक्ति की अपेक्षा योगी को कुछ अधिक ज्ञान होता है । यह अन्तर है 

पूर्वपक्षी:- बाकी सर्ववित  तभी हो सकता है जब तक उसके साथ अंतःकरण का संघात हो।

सिद्धांती:- पहली बात जड़ का चेतन के साथ संघात नहीं हो सकता। संख्य में चेतन और जड़ के बीच संघात शब्द का प्रयोग कहीं नहीं है। संघात प्रकृति का होता है। आत्मा का किसी के साथ संघात संभव नहीं है। कारण आत्मा अवयव रहित है। प्रकृति अवयव सहित है  चेतन आत्मा तो केवल प्रकृति के बंधन में आ जाता है।

         ईश्वर प्रकृति सुख दुख के प्रति उदासीन है, इसमें कोई समस्या नहीं है। कारण यदि ईश्वर भी सुख, दुख आदि का अनुभव लेने लगे, फिर ईश्वर और जीव में क्या अंतर रह जाएगा? सांख्यदर्शन एक आस्तिक दर्शन है। महामुनि कपिल निर्विवाद ईश्वर को मानते हैं। ये सांख्यसूत्र से सिद्ध हैं।अस्तु।

                                            


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