इस लेख में वैदिक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक के ग्रंथो के विज्ञान को देखा जायेगा भविष्य में इसे लगातार update किया जाता रहेगा
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| स्वघोषित ऋषि |
आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक निःसंदेह यह एक विद्वान है। उन्होंने बहुत अच्छी किताबे भी लिखीं है। जैसे बोलो किधर जाओगे? मांसाहार पर उन्होंने एक किताब लिखी है।और भी बहुत सारी किताबें लिखीं है, परन्तु जब भी वह ग्रंथों से विज्ञान निकालने का प्रयास करते हैं, मैं ये नहीं कहूंगा कि विज्ञान निकालने का प्रयास करते हैं। ये कहना उचित होगा कि जबरदस्ती विज्ञान निकालने का प्रयास करते हैं और विज्ञान निकालते भी है तो उसमें एक शब्द है उसका नाम है रश्मि। हर जगह रश्मि छंद रश्मि, प्राण रश्मि, पता नहीं ये सब कहा से लाते है| उनको हर जगह सूर्य बनने का विज्ञान दिखता है|
आप्रीभिराप्रीणाति ।।तेजो वै ब्रह्मवर्चसमाप्रिद्यंस्तेजसैवैनं तद् ब्रह्मवर्चसेन समर्थयति।।समिधो यजति।। प्राणा वै समिधः, प्राणा हीद॑ सर्व समिन्धते यदिदं किंच, प्राणानेव तत्प्रीणाति, प्राणान् यजमाने दधाति।। 1(आप्रिय: - प्राणा वा आप्रिय: (कौ. ब्रा.१८-१२), यदेता आप्रियो भवन्ति यज्ञमेवैताभिर्यजमान आप्रीणीते (मै.३.६.६), (आप्रियः) (ऋचः) तदूयद् आप्रीणाति तस्मादाप्रियो नाम (कौ.ब्रा.१०.३), आप्रीभिराष्नुवन् तदाप्रीणामाप्रीत्वम् (तै.ब्रा.२-२.८-६))
अन्य शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं किया बस विभिन्न ग्रंथो में आप्रिय: शब्द का जो अर्थ किया उसको यहाँ लिख दिया है इससे इस कण्डिका में क्या स्पष्ट होता है, कुछ भी नहीं, लेकिन व्याख्या अपने ही मन से लिख दी है-
व्याख्यानम्- उपर्युक्त प्रकरण में अग्नि व सोम मिश्रित पदार्थ एवं यूप रूप तरंगें जब परस्पर मिश्रित हो रही होती हैं, तब आप्री संज्ञक ११ ऋचाओं की उत्पत्ति होती है और वे ऋग्रूप तरंगें सम्पूर्ण नेव्यूला वा तारों में विद्यमान पदार्थ को व्याप्त और तृप्त करती हैं। यह आप्री संज्ञक सूक्त ऋ. १. १८८, माना जाता है, क्योंकि इसका देवता 'आप्रियः' है । इस कारण यह अपने दैवत प्रभाव से सम्पूर्ण नेव्यूला वा तारे में सब ओर से व्याप्त हो जाती हैं ।।
३. नराशंसं यजति; प्रजा वै नरो, वाक्शंसः, प्रजां चैव तद्बाचं च प्रीणाति, प्रजां च वाच च यजमाने दधाति।।व्याख्यानम्- इसके पश्चात् मेधातिथि: कण्व ऋषि अर्थात् सूत्रात्मा वायु से नराशंस देवताक एवं गायत्री
दुरो यजति, वृष्टिर्वै दुरो वृष्टिमेव तत्प्रीणाति, वृष्टिमन्नाद्यं यजमाने दधाति ।।
वैज्ञानिक भाष्यसार - इसी क्रम में एक त्रिष्टुप् छन्द रश्मि उत्पन्न होती है, जो विभिन्न कणों और विद्युत् चुम्बकीय तरंगों को परस्पर संयुक्त करने में सहायक होती है । विभिन्न फोटोन्स विभिन्न कणों के अन्दर उसी प्रकार व्याप्त हो जाते हैं, जिस प्रकार विभिन्न प्राण रश्मियों के अन्दर सूत्रात्मा वायुरूप प्राण रश्मि व्याप्त रहती है। ये दोनों प्रकार के संगत पदार्थ एक-दूसरे के अन्दर अपना तेज प्रवाहित करते रहते हैं । विभिन्न कण और विद्युत् चुम्बकीय तरंगें संयुक्त होकर तीव्र रूप से गतिमान होते रहते हैं और उनकी विभिन्न गतियों के कारण ही ऊर्जा उत्सर्जन और अवशोषण की क्रियाएं भी सम्पादित हुआ करती हैं । तीव्र ऊर्जा अप्रकाशित बाधक ऊर्जा को बलपूर्वक दूर प्रक्षिप्त कर देती है और ऐसी प्रक्षेपक ऊर्जा से सभी तारे आदि तृप्त होकर विभिन्न प्रकार के नवीन - २ तत्त्वों के निर्माण में सफल हो पाते हैं ।।
9. आप्रीभिराप्रीणाति ।। तेजो वै ब्रह्मवर्चसमाप्रिद्यंस्तेजसैवैनं तद् ब्रह्मवर्चसेन समर्थयति।। समिधो यजति।। प्राणा वै समिधः, प्राणा हीद॑ सर्व समिन्धते यदिदं किंच, प्राणानेव तत्प्रीणाति, प्राणान् यजमाने दधाति।।(आप्रिय: - प्राणा वा आप्रिय: (कौ. ब्रा.१८-१२), यदेता आप्रियो भवन्ति यज्ञमेवैताभिर्यजमान आप्रीणीते (मै.३.६.६), (आप्रियः) (ऋचः) तदूयद् आप्रीणाति तस्मादाप्रियो नाम (कौ.ब्रा.०.३), आप्रीभिराष्नुवन् तदाप्रीणामाप्रीत्वम् (तै.ब्रा.२-२.८-६))
६. दुरो यजति, वृष्टिर्वै दुरो वृष्टिमेव तत्प्रीणाति, वृष्टिमन्नाद्यं यजमाने दधाति ।।{दुरः = द्वाराणि (म.द.य. भा. २०.३६), वृष्टिर्वै दुरः ( ऐ. २.४), वृष्टिः शक्तिबन्धिका शक्तिः ( म. द. ऋ. भा. १. १५२.७), वृष्टिः (प्रजापतिः) तम् (पाप्मानम्) अवृश्चत् यदवृश्चत् तस्माद् वृष्टिः (तै. ब्रा. ३.१०.६.१) । व्यचस्वतीः = गमनाऽवकाशयुक्ताः ( म.द.य. भा. २८.२८), व्याप्तिमत्यः (म.द.य. भा. २०.६० ) । उर्वी पृथिवीनाम ( निघं. १.१), बहुरूपादीप्ति: ( तु. म. द.ऋ. भा. ६.६.४), द्यावापृथिवीनाम ( निघं. ३. ३०), उर्व्य ऊर्णोतेः, वृणोतेरित्यौर्णवाभः (नि. २. २६) । शुम्भमाना = (शुम्भ शोभार्ये सुन्दर होना - सं.धा. को. - पं. युधिष्ठिर मीमांसक) । सुप्रायणाः (नि. ४.१८) । जनयः = आपो वै जनयोऽद्भ्यो हीदं सर्वं जायते (श. ६.८. २.३ ) |चमकना, देदीप्यमान होना, सुप्रायाणाः सुप्रगमनाः
महर्षि दयानंद ने कब कहा कि मेरे वेद भाष्य को तुम शब्दकोश की तरह प्रयोग करो।और जो भी अर्थ जहाँ से भी बन पड़े वहाँ से उसको लिख दो।
यहाँ एक ही शब्द सविता का अर्थ विभिन्न प्रकरण में अलग अलग किया है। यहाँ से सविता का कुछ भी अर्थ लेकर के कहीं पर भी लगा देना ठीक नहीं है।वहाँ प्रकरण देखना पड़ता है कि सामने वाला वहाँ उस वचन से क्या कहना चाहता है। वैदिक वैज्ञानिक ने यहाँ पर शतपथ के रचनाकार की क्या दृष्टि है, वहाँ उन मंत्रों द्वारा क्या कहना चाहते हैं? उस प्रकरण में क्या लिखा है उस पे कोई भी ध्यान नहीं दिया।अपितु कहीं से भी कोई भी अर्थ वहाँ पर लिख दिया। समन्वय कर के भी नहीं दिखाया
ये तो वही बात हो गई की सांख्य दर्शन से लिंग का अर्थ ले कर के शिव पूराण में शिव लिंग का अर्थ कर दे फिर तो सब सत्यानाश ही होगा। वहा पूराण में लिंग से क्या आशय है, देखना पड़ता है, पीछे उस लिंग के क्या लक्षण किये ये भी देखना पड़ता है, ऐसे ही कही से कोई अर्थ नहीं होता
४. तं यत्र निहनिष्यन्तो भवन्ति तदध्वर्युर्बर्हिरधस्तादुपास्यति ।। यदेवैनमद आप्रीतं सन्तं पर्यग्निकृतं बहिर्वेदि नयन्ति बर्हिषदमेवैनं तत्कुर्वन्ति ।। तस्योवध्यगोहं खनन्ति । । औषधं वा ऊवध्यमियं वा ओषधीनां प्रतिष्ठा तदेनत्स्वायामेव प्रतिष्ठायामन्ततः प्रतिष्ठापयन्ति ।।
{ सम्पृचः=ये सम्पृचन्ति ते ( म.द.य. भा. १६. ११), संयुक्तात् ( म. द. ऋ. भा. २.३५.६), आ. राजवीर शास्त्री) । स्कन्नम् (सम्+ पृची सम्पर्के धातोः कर्तरि क्विप् - वै.को. प्राप्तम् (स्कन्दिर् गि शोषणयोः = उछलना, कूदना, टपकना, रिसना, बिखरा जाना, उगलना, पास से निकल जाना, अवहेलना करना आदि-वामन आप्टे)}
व्याख्यानम् - उपर्युक्त प्रकरण में विभिन्न कणों वा लोकों के संयोगादि की चर्चा है, उसी प्रकरण को पूर्ववत् स्पष्ट करते हुए महर्षि कहते हैं कि जहाँ विभिन्न संयोज्य कण परस्पर एक दूसरे को पूर्णरूपेण प्राप्त करते हैं अर्थात् वे परस्पर संगत होते हैं, वहाँ अध्वर्यु अर्थात् मन एवं वाक् तत्त्व किंवा प्राणापानादि तत्त्व उन कणों के निवास स्थान अवकाश रूप आकाश में विभिन्न छन्द वा मरुद् रश्मियों का प्रक्षेपण करते हैं। वस्तुतः कणों के साथ मन वागादि तत्त्व उस अवकाश रूप आकाश में आकाश तत्त्व को भी विछा देते हैं। यह आकाश तत्त्व प्रत्येक कण के साथ संयुक्त रहता ही है, इसे ही उसका उन कणों के नीचे बिछाना कहा जाता है। यहाँ 'उपास्यति' पद से स्पष्ट होता है कि आकाश तत्त्व, विभिन्न छन्द वा स्तविक बर्दिजन कणों के चारों ओर ही संयुक्त रहते हैं।
इस प्रकार का अतरंगी भाष्य वैदिक वैज्ञानिक किस प्रकार करते है इसके बारे में वे स्वयं कहते है -
"कुछ विद्धान् मुझे पूछते रहे हैं कि मुझे ऐसे अर्थ कैसे सूझते हैं? इस कारण मैं अपनी चिन्तन प्रक्रिया को संक्षेप में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ-
सर्वप्रथम मैं परमगुरु परमात्मा को अतीव विनम्नता से स्मरण करके ग्रन्थ एवं समूचे ब्रह्माण्ड पर विचार करके इन दोनों को ही समझने की शक्ति देने की प्रार्थना करता हूँ। इसके पश्चात् अनेक प्रत्यक्ष परोक्ष दृष्टिकोणों से उस ग्रन्थ, जिसे मैं समझना चाह रहा हूँ, के लेखक की महिमा का अनुभव करते हुए ग्रन्थ के स्तर को विचार करके, उसी स्तर से ग्रन्थ के प्रत्येक पद को जानने का उद्देश्य अपने सम्मुख रखता हूँ। इस ग्रन्थ को समझने हेतु एक कण्डिका को ध्यान से पढ़कर उसके प्रत्येक विचारणीय पद के विषय में इसी ग्रन्थ के अतिरिक्त अन्य व्राह्मण ग्रन्थों, निरुक्तादि आर्ष ग्रन्थों, महर्षि दयानन्द के वेदभाष्यों में उस पद के निर्वचनों वा व्युत्पत्तियों को मूलग्रन्थों किंवा विभिन्न कोशों के माध्यम से देखता हूँ।
ऐसा करते समय कण्डिका के रहस्य का एक चित्र ब्रह्माण्ड में हो रही किसी सम्बन्धित प्रक्रिया के रेखाचित्र के रूप में मेरे मस्तिष्क में शनैः-२ उभरने लगता है। प्रारम्भ में यह चित्र व उसका चिन्तन घुंधला होता है और धीरे-२ स्पष्ट, स्पष्टतर होने लगता है। यह कैसे बनता है, यह मैं स्वयं नहीं जानता, वस यही मान सकता हूँ कि यह ईश्वरीय वरदान है, जिसके विना ऐसा चित्र उभरना सम्भव नहीं है।
किसी पद के पचासों व शतशः सन्दभों में से कुछ विशेष उपयोगी सन्दर्भों में से उस पद से व्यक्त हो सकने वाले पदार्थ का चित्र-चिन्तन अन्त में स्पष्टतम होकर पूर्ण संगति को प्राप्त कर लेता है और उसी को मैं अपने व्याख्यान का रूप दे देता हूँ। इस प्रक्रिया में आधुनिक विज्ञान का भी संस्कार साथ-२ बना रहता है। इस प्रक्रिया में कभी-२ ऐसा भी हुआ है कि किसी पद का किसी ग्रन्थ में कोई सन्दर्भ, निर्वचन आदि प्राप्त नहीं हुआ, पुनरपि उस कण्डिका व उससे सम्भावित सम्बन्ध रखने वाली ब्रह्माण्ड की किसी प्रक्रिया का अति धुंधला चित्र मस्तिष्क में उभरा परन्तु वह इतना धुंधला, अस्पष्ट व अव्यवस्थित होता है कि मैं उससे कण्डिका का पूर्ण आशय समझने में असमर्थ रहा। ऐसी स्थिति में मुझे मस्तिष्क पर बहुत बल देना पड़ा, सिरदर्द भी कभी-२ हुआ परन्तु सफलता नहीं मिली। तब मैं स्वयं को एकान्त कक्ष में इस प्रतिज्ञा के साथ बन्द कर लेता कि इस पद का अर्थ जानकर ही बाहर आऊंगा। फिर एकान्त में अपने परम मार्गदर्शक परम पिता परमात्मा से अति गम्भीर होकर स्तुति-प्रार्थना-उपासना पूर्वक विनय करता, बल-बुद्धि मांगता, तदुपरान्त पूर्व में बने अति घुंघले व अस्पष्ट चित्र व चिन्तन में ईश्वर चिन्तन के साथ-२ प्रविष्ट होने का बार-२ प्रयत्न करता। उस प्रयत्न में मस्तिष्क पर बहुत भार अनुभव होता परन्तु साथ में ईश्वर चिन्तन होने से उसे मैं सहन करने में अपने को समर्थ पाता था किंवा उससे मैं सिरदर्द आदि क्लेश का अनुभव नहीं करता।
ऐसा करते-२ वह अतिधुंधला चित्न-चिन्तन धीरे-२ स्पष्ट-स्पष्टतर और अन्त में ऐसा स्पष्टलम होता कि मुझे इतना आनन्द का अनुभव होता, मानो मुझे कोई अपार धन मिल गया वा ब्रह्म की ही अनुभूति हो गयी हो।
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में प्रायः २-४ घण्टा का समय लगता था। एक बार अपवाद के अतिरिक्त मेरे प्रभु ने मुझे कभी निराश नहीं किया। अपवाद यह कि एक बार मैं असमय हठात बैठ गया, जबकि उस अवधि में नित्यकर्म का भी समय था।
संक्षेप में यह मैंने अपनी प्रक्रिया को शब्दों में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। वस्तुतः इस प्रकार की प्रक्रिया को शब्दों में अभिव्यक्त करना पूर्ण सम्भव नहीं हो पाता है, पुनरपि पाठकों के ज्ञानार्थ लिखने का प्रयास किया है। पाठक इसका जो भी अर्थ निकालें, वे स्वतंत्र हैं।" (आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक, वेद विज्ञान अलोक)
तो यहाँ पर इन्होंने स्पष्ट रूप से लिख दिया है कि व्याकरण की तो कोई आवश्यकता है ही नहीं केवल कमरे में बंद होकर के अर्थ किया जा सकता है। मैं ऋषि हूँ यह लिखने का पूरा प्रयास किया है इसीलिए मेरी बात मान लो।
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिज्ञा: सहस्त्रशः प्रभवन्तेसरूपा:।
तथाक्षराद्धिविधा: सोम्य भावा: प्रजायन्ते तत्रचैवापि यन्ति: ॥ १ ॥ २३ ॥
व्याख्या:- इस मन्त्र में वायुमंडल में इतनी भारी मात्रा में आक्सीजन कैसे आया इसका वर्णन किया गया है, पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा इसे एक रहने योग्य ग्रह बनाती है। वायुमंडल का इक्कीस प्रतिशत भाग इसी जीवनदायी तत्व प्राण रश्मि से बना है। आधुनिक पृथ्वी पर, प्रमुख टेक्टोनिक रश्मि गतिविधि को प्लेट रश्मि टेक्टोनिक्स छन्दस कहा जाता है, जहां महासागरीय आवरण - महासागरों के नीचे पृथ्वी की सबसे बाहरी परत छंद रश्मि - अभिसरण रश्मि के बिंदु पर पृथ्वी के मेंटल प्राण रूपी सूक्ष्म वायु (पृथ्वी के आवरण और इसके कोर के बीच का क्षेत्र) में डूब जाती है जिसे जोन मरुत रश्मि कहा जाता है। प्लेट प्राण रश्मि टेक्टोनिक्स छंद रश्मि आर्कियन युग में भी सक्रिय थी।
आधुनिक सबडक्शन जोन की एक विशेषता ऑक्सीकृत मैग्मास रश्मि के साथ उनका जुड़ाव है। ये मैग्मा रश्मि तब बनते हैं जब ऑक्सीकृत तलछट और नीचे का पानी - समुद्र प्राण छंद रश्मि तल के पास ठंडा, घना पानी - पृथ्वी तत्व के मेंटल रश्मि में प्रवेश करता है। यह उच्च ऑक्सीजन प्राण रश्मि और पानी की मात्रा वाले मैग्मा रश्मि का उत्पादन करता है। आर्कियन तल के पानी और तलछट सूक्ष्म प्राण रश्मि में ऑक्सीकृत सामग्री की अनुपस्थिति ऑक्सीकृत मैग्मा रश्मि के निर्माण नियोआर्कियन मैग्मैटिक विशाल मरुत रश्मि चट्टानों में ऐसे मैग्मा रश्मि की पहचान इस बात का प्रमाण दे सकती है कि सबडक्शन और प्लेट प्राण रश्मि टेक्टोनिक्स 2.7 अरब साल पहले हुए थे।एक और भाष्य देखिये:- (credit वैदिक मीमांसक को जाता है)
(सह)= संहिता (म.द.ऋ.भ १/३८/६), ( नावा) = नौकादिना (म.द.ऋ.भ १/४६/७), (वतु) = असतो वा एष सम्भूतो वतु बुदरः'" (तं० २।२।२।६९), (भुनक्तु) = भुना यो मयांसि सुखानि भावयति तेन (म.द.ऋ.भ ३.१६.६), (वीर्य्यम्) = बलं पराक्रमो वा (म.द.ऋ.भ १/५७/५), (धीतयः) = दधात्यर्थान् याभिः कर्मवृत्तिभिस्ताः(म.द.ऋ.भ १/२५/१६)
वैज्ञानिक भाष्यसार:- इस मन्त्र में ग्रहों के बनने का विज्ञान तथा उनके सूर्य के क्षेत्र में आने का विज्ञान उद्घाटित किया गया है।
रहीम का एक दोहा याद आ रहा है:-
बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल॥
अर्थात:- रहीम कहते हैं कि जिनमें बड़प्पन होता है, वो अपनी बड़ाई कभी स्वयं नहीं करते। जैसे हीरा कितना भी अमूल्य क्यों न हो, कभी अपने मुँह से अपनी मुल्यता का बखान नहीं करता।
जो विद्वान् होता है, वह अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करता बल्कि उसके किये गए कृत्य लोगो द्वारा उसे प्रशंसा के पात्र बनाते है| संस्कृत का एक प्रसिद्ध श्लोक भी है:-
विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,धनात् धर्मं ततः सुखम्॥
भावार्थ:- विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
किन्तु कई लोग अपनी मुख अपनी प्रशंसा करने में ही कृत्यक्रित्यता समझते है, अब हमारे आचार्य जी को ही देख लीजिये-
वैदिक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक कहते हैं कि तारे, ग्रह स्पेस आकाशगंगाएँ, इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन आदि रश्मि से बने है। हमारे शरीर की कोशिका वेद मंत्रों से बनी है, तो ऐसे हमको किसी भी ग्रंथ में क्यों प्राप्त नहीं होता? जहाँ तक सृष्टि निर्माण की बात है, सृष्टि निर्माण प्रक्रिया सांख्य दर्शन में अति विस्तार से बताई गई है। निमित कारण परमात्मा द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति होती है वेदांत दर्शन में इसकी विस्तार से व्याख्या है, परंतु वहाँ पर भी रश्मि के द्वारा या वेद मंत्रों के द्वारा सृष्टि के निर्माण की बात कही नहीं है। सांख्य दर्शन में तो रश्मि शब्द ही नहीं है। वेदांत में एक जगह ऐसा शब्द आया है (४.२.१८) परन्तु वहा भी रश्मि शब्द का अर्थ सूर्य का किरण किया है | (आचार्य उदयवीर शास्त्री, स्वामी ब्रह्ममुनी परिवार्जक विद्यामार्तण्ड)
आगे अपनी प्रशंशा में लिखा है:- "Even, He is the only man in the entire world who proved the existence of God (Ishwar) through science. The scientific system, process and the scientific mechanism of working of the formless God (Ishwar) is known only to him."
अपनी प्रशंसा में कह रहे हैं कि जिस प्रकार इन्होंने वैज्ञानिक रूप से ईश्वर की सिद्धि की है, अन्य कोई विश्व में सिद्ध कर ही नहीं पाया। तो इनके वैज्ञानिक रूप से ईश्वरसिद्धि करने का क्या तात्पर्य है? क्या इन्होंने माइक्रोस्कोप से ईश्वर को देख लिया है? कौन सी ऐसी पद्धति या कौन सी ऐसी विधि खोज ली है? कहे वैज्ञानिक विधि खोज ली है, जिसके द्वारा कोई भी ईश्वर को देख सकता है, या जान सकता है। क्या महर्षि दयानंद के तर्क ईश्वरसिद्धि में पर्याप्त नहीं है? क्या अन्य आर्य विद्वानों ने ईश्वर सिद्धि में उचित ठोस तर्क नहीं दिए? अवश्य दिए है| जो ये ईश्वर सिद्धि में तर्क देते है वो कोई इनके द्वारा खोजी गई चीजे नहीं है, आपितु लोग पहले से ही इसे जानते है| इसपे इतना अभिमान करना जो उनके द्वारा खोजा भी नहीं गया, विशुद्ध मुर्खता है| हाँ एक चीज इन्होने अवश्य खोजी है वो है रश्मि
उसी लेख में आगे लिखते है:- "He did scientific interpretation of brahman granth of the Rig-Veda for the first time in the world." ये करके तो सत्यानाश कर दिया है कौन सा मानव मात्र पे बहुत बड़ा उपकार किया है|
"He also discovered an element that is four times faster than light." ये कैसे पता चला इन्हें ऐसे तो मै भी कुछ भी बोल दू, रही माध्यम के अधिक गतिशील होने की बात तो वो भी जिस मध्यम में होगा वो अधिक गतिशील होगा
"This book is the scientific interpretation of the Aitarey Brahman granth of the Rig-Veda, which he did for the first time in the world. The actual creation and destruction of the whole universe as well as the Vedic scientific explanation of the creation of the matter and elementary particles has been given through Vedic physics very subtly and extensively, which is not known even to modern science. If research is done on this book, then for the next 200 years, modern scientists will get everything to research this book."
अब आधुनिक विज्ञान को कैसे पता होगा आचार्य जी, वो अपना समय फालतू का रश्मि रश्मि करने में व्यतीत नहीं करते | ये कह रहे है की अगले 200 साल में आधुनिक विज्ञान इसपे शोध करेगा ये सब फेकम्बाजी है ऐसा कुछ नहीं होगा, वैज्ञानिको को और कोई काम नहीं है क्या? जो वो अपना बहुमूल्य समय रश्मि आलोक को पढ़ने में व्यर्थ करेंगे
"Acharya Agnivrat Naishthik ji is the only Vaidic Scientist in the whole entire world, The greatest scholar of the Vedas in the whole entire world at present time. He is the great scholar of all the ancient Vaidic scriptures and texts, Great Vaidic Philosopher, Great Author. He is the only Vaidic Theoretical Physicist in the whole entire world and the only Vaidic Cosmologist in the whole entire world."
अपनी ही प्रशंसा में तारीफों के पुल बांध रहे है|
"Through this theory, we will be able to know the fundamental laws of physics in such a depth that the world’s scientists could not understand in the last four thousand years" पुनः अपनी ही प्रशंसा में तारीफों के पुल बांध रहे है|
Even today, Acharya Shri is performing this science Yagya to liberate India from intellectual slavery, establish a true Sanatan Vedic religion globally, and bring revolutionary changes in modern physics for world peace. He is the Maharana Pratap of the present time. पुनः अपनी ही प्रशंसा में तारीफों के पुल बांध रहे है| अब तो महाराणा प्रताप बन गए
किसी ने मुझसे कहा कि ये सब लेख वो स्वयं नहीं लिखते सत्य है, परन्तु बिना उनके अनुमति के कोई लेख प्रकाशित भी नहीं हो सकता क्योकि ये साईट उनकी ही है, अत: उनकी सहमति तो अवश्य है| यदि नहीं है तो इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना चाहिए लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे कारण अपने पुस्तक में ही उन्होंने स्वयं से अपने आप को ऋषि बना रखा है|
वैदिक वैज्ञानिक कहते हैं कि मैंने जो ब्लैक होल पे वीडियो बनाए उससे नासा हिल गया। लेकिन वो अलग बात है कि नासा के हिलने का आभास हमारे वैदिक वैज्ञानिक के अलावा किसी को ज्ञात नहीं है। russian space agency(ROSCOSMOS) तथा chinese space agency के लोगों ने हमारे आचार्य जी को फ़ोन किया। मतलब सीधा कहे तो ये फेंकने में पूरी वाले पंडे(निश्चलानंद सरस्वती) से भी एक कदम आगे है। मतलब कुछ भी!
यदि सच में ऐसा हुआ है तो वैदिक वैज्ञानिक अपनी कॉल डिटेल लोगों के सामने क्यों नहीं रखते? ये छोटी मोटी बात नहीं है। ऐसा केवल बोलने से इनके बात पर कौन विश्वास करेगा? वैदिक वैज्ञानिक कहते हैं कि नासा वालों ने उनसे कॉल पर वेद विज्ञान आलोक की सॉफ्ट कॉपी मांगी। लेकिन हमारे आचार्य जी ने देश भक्ति का परिचय देते हुए ये कॉपी उन्हें नहीं दी। अब विचार करने वाली बात ये है की वैदिक वैज्ञानिक ने वेद विज्ञान आलोक पुस्तक अमेजन तथा फ्लिपकार्ट के साइट पर उपलब्ध करवा रखी है तो कोई क्यों उनसे सॉफ्टकॉपी मांगेगा? क्या नासा के पास ₹10,000 रुपये नहीं है कि वो वेद विज्ञान आलोक खरीद सके? (पहले १५००० थे अब १०००० में बेच रहे है अब क्या करे कोई ले जो नहीं रहा)
उन्होंने अपनी तारीफ के झूमके पुल बांधते हुए कहा कि मैंने राष्ट्रपति जी को कहा कि भारत में जीतने भी बड़े भौतिक वैज्ञानिक हैं, उनमें से कोई भी मेरे प्रश्न के उत्तर नहीं दे सकता यदि उत्तर दे दे तो भारत सरकार मुझे जो चाहे दंड दे दे।
वैदिक वैज्ञानिक को कोई ऋषि कहे इनका मन प्रफुल्लित हो जाता है
आचार्य जी के अनुसार मनुष्य भी भुत भविष्य को जान सकता है video देखे -
जबकि यहाँ भुत भविष्य जानने की बात नहीं है, गीता ४.५ में कहा-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सवोणि न त्व॑ वेत्थ परंतप ॥ ५॥
श्री भगवान् बोले- अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म बीत चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ, परंतप ! तू नहीं जानता ॥ ५ ॥
इसका केवल इतना अर्थ है की योगी व्यक्ति ही शास्त्र, ध्यान और अपने ज्ञान के तप से यह जान पाता है कि जीवात्मा बहुत सारा जन्म लेता है। वह पुनर्जन्म की प्रक्रिया से गुजरता है। इसलिए भगवान यहाँ पर कह रहे हैं कि मेरे और तुम्हारे भी बहुत सारे जन्म हुए हैं। जिसको मैं जानता हूँ, तुम नहीं जानते। क्योंकि भगवान गीता में आत्मा अमर है इत्यादि भी अर्जुन को कहते हैं-
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
इससे ज्ञात होता है कि भगवान अर्जुन को सामान्य स्तर से जानकारी दे रहे हैं कि आत्मा अमर है, ईश्वर अमर है। प्रकृति अनादि है इत्यादि तो इसी में ये भी कहते हैं कि आत्मा पुनर्जन्म भी लेता है। बहुत सारे जन्म लेता है, जिसको मैं जानता हूँ, क्योंकि मैंने इसको अपने ज्ञान के तप से जाना है अथवा मैंने इसको शास्त्रों में पढ़ा है। तुम नहीं जानते इसीलिए मैं तुमको कह रहा हूँ की तुम जानो।
"परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥ योग ३.१६ ॥
इत्यादि सूत्रों का भी यही अर्थ है,, धर्म, लक्षण, अवस्था इन तीन परिणामों में संयम करने से अतीत (भूत) और अनागत (भविष्यत्) काल का ज्ञान होता है । योगी जिस विषय में संयम करता है उस विषय में सीमित ज्ञान हो जाता है । जैसे आजकल के भौतिक वैज्ञानिक वस्तुओं का सामान्य ज्ञान करते हैं कि यह भवन, पत्थर पुल आदि पदार्थ कितना पुराना है और आगे कितने समय तक चल सकेगा । इसी प्रकार से योगी भी भूत, भविष्यत् के पदार्थों का सीमित ज्ञान कर लेते हैं । परन्तु यह भवन, अथवा पुल कौन से क्षण में उत्पन्न हुआ था और कौन से क्षण में नष्ट हो जायेगा, क्षण सहित काल का ज्ञान नहीं कर सकते । चालीस वर्ष के पश्चात् इतने बजकर इतने मिनट में अमुक नामक व्यक्ति इस भवन को गिरा देवेगा । यह भी नहीं जान सकते ।
दूसरी बात चेतन पदार्थों के विषय में जाननी चाहिये । योगी वा भौतिक वैज्ञानिक यह नहीं जान सकता कि यह देवदत्त नाम का व्यक्ति चालीस वर्ष के पश्चात् इतने बजे, इतने मिनट पर विष खाकर मर जायेगा । क्योंकि विष खाकर मरने वाले व्यक्ति के मन में भी यह बात नहीं है, कि मैं विष खाकर इस समय मरूँगा । जब यह बात उसके मन में ही नहीं है तो योगी उसको कैसे जानेगा ? चालीस वर्ष से लेकर आज तक किसी व्यक्ति ने मन, वचन और शरीर से कितने अच्छे और कितने बुरे कर्म कब, कहाँ पर किये हैं, यह योगी नहीं जान सकता । इसी प्रकार से किसी व्यक्ति के भविष्य में होने वाले कर्मों के विषय में भी नहीं जान सकता । कभी कभी किसी व्यक्ति के कर्मों के विषय में किसी कर्म का सामान्य ज्ञान हो सकता है । सांसारिक व्यक्ति की अपेक्षा योगी को कुछ अधिक ज्ञान होता है । यह अन्तर है
भविष्य काल का पहले से ही ज्ञान कर लेना तो ईश्वर के लिए भी संभव नहीं है, भविष्य अर्थात जो हुआ ही नहीं जिसकी सत्ता ही नहीं उसका ज्ञान कैसे हो सकता है, ऐसा मानने पर तो कर्म फल व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी | इसी बात को ऋषि दयानंद सरस्वती अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में भी लिखते है -
प्रश्न:- परमेश्वर त्रिकालदर्शी है इस से भविष्यत् की बातें जानता हे। वह जैसा निश्चय करेगा जीव वैसा ही करेगा। इस से जीव स्वतन्त्र नहीं और जीव को ईश्वर दण्ड भी नहीं दे सकता क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चित किया है वैसा ही जीव करता हे।
उत्तर:- ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता का काम है। क्योंकि जो होकर न रहे वह भूतकाल और न होके होवे वह भविष्यत्काल कहाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान होके नहीं रहता तथा न होके होता है? इसलिये परमेश्वर का ज्ञान सदा एकरस, अखण्डित वर्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये है। हां जीवों के कर्म की अपेक्षा से त्रिकालज्ञता ईश्वर में है, स्वतः नहीं । जेसा स्वतन्त्रता से जीव करता हे वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता हे और जेसा ईश्वर जानता है वैसा जीव करता है। अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमान के ज्ञान और फल देने में ईश्वर स्वतन्त्र और जीव किज्चित् वर्तमान और कर्म करने में स्वतन्त्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जेसा कर्म का ज्ञान हे वैसा ही दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि हे। दोनों ज्ञान उस के सत्य हें। कया कर्मज्ञान सच्चा और दण्डज्ञान मिथ्या कभी हो सकता हे? इसलिये इस में कोई भी दोष नहीं आता।
प्रकृति रूपी मूल उपादान परार्थ में प्रकाश क्रियादि सभी गुणों में से कोई भी गुण विधान नहीं होता किंवा उनका बिजरूप भी विद्यमान नहीं रहता। इस कारण उस समय विद्यमान मूल पदार्थ को न ब्रव्य, न ऊर्जा और न space ही कहा जा सकता है। vacuum energy, dark energy तथा dark matter आदि भी उस समय विद्यमान नहीं होता। इस प्रकार बह पदार्थ स्वरूप वाला होता है-१. पदार्थ का आयतन अनन्त होता है।२ पदार्थ का द्रव्यमान शुन्य होता है३. शीतलता अनन्त परिमाण है।४. घनत्व दया होता है।४- किसी प्रकार के बल अथवा क्रियाऐँ पूर्णतः अविद्यमान होती हैं। इससे वह पदार्थ पूर्णतः शान्त एवं अनन्त आयतन में पूर्णतः एकरल होकर भरा रहता है।६. यह न कण रूप, न तरंग रूप, न space रूप और न struing रूप में होता है। बिग बैंग के खंडन में कहते है की आकार शुन्य होने से द्रव्यमान शुन्य हो जायेगाऔर खुद ही प्रकृति को शुन्य द्रव्यमान वाला कह रहे है, अब बात यह है कि वैदिक वैज्ञानिक ने 12 वीं तक की भी भौतिक विज्ञान को नहीं पढ़ा।अगर इतना ज्ञान होता तो अवश्य जानते हैं कि द्रव्यमान शून्य नहीं हो सकता है। जो ये प्रकृति की स्थिति बता रहे है, उसमे तो असंभव ही है|
let's see
Can you think that there can be a substance in which the mass is zero. It is a bit difficult to think and it is also surprising that such a substance is possible which has zero mass. But theoretically it is possible, the mass of the photon is zero. Light has no mass.
HOW DOES SPECIAL RELATIVITY PREDICT THAT PHOTONS HAVE NO MASS? (SIMPLE MATHEMATICAL PROOF)
One of the consequences of Einstein’s theory of special relativity is that particles
The answer is very simple and to see it, you only need one of the fundamental results of special relativity, which is the formula for relativistic total energy:
From this, you simply solve for the mass and see what happens in the case of a photon (i.e. when the velocity v is the speed of light c):
The Einstein equation that you are probably referring to is E = mc2. This equation is actually a special case of the more general equation:
E2 = p2c2 + m2c4
When a particle is at rest (p = 0), this general equation reduces down to the familiar E = mc2. In contrast, for a particle with no mass (m = 0), the general equation reduces down to E = pc. Since photons (particles of light) have no mass, they must obey E = pc and therefore get all of their energy from their momentum. If a question arises in your mind how light have momentum without mass? So click here and watch it.
अब मैं इसी बात को हिंदी में सरलतापूर्वक निष्कर्ष से कहता हूँ। Einstein की माने तो किसी भी वस्तु का मास(द्रव्यमान) तभी जीरो हो सकता है। जब वह लाइट की स्पीड से गति करें। जैसा फोटोन के केस में होता है।
जबकि वैदिक वैज्ञानिक ने स्वयं कहा है कि प्रकृति पूरी तरह से शांत होती है, उसमें किसी प्रकार की कोई गति नहीं होती। तो उसमें द्रव्यमान शून्य कहा, वो कैसे कहा?। ये तो भौतिक विज्ञान से भी सिद्ध नहीं होता।
वैदिक वैज्ञानिक यदि स्थिर वस्तुओ में भी द्रव्यमान शुन्यता सिद्ध कर दे फिर तो भौतिकी की दुनिया में तहलका मच जायेगा, अब Einstein का खंडन करना छोटी मोटी बात तो है नहीं,,, केवल बोलने से कुछ नहीं होता, आप जो कह रहे है, न उसके पीछे कोई Mathematical proof है और न प्रयोग और परिक्षण द्वारा सिद्ध है आपके इस फर्जी विज्ञान को कोई क्यों मानें ? केवल आपके कहने के अतिरिक इसका कुछ प्रमाण भी है?
वैदिक वैज्ञानिक अग्निव्रत नैष्ठिक अपने आप को ऋषि भक्त कहते है, लेकीन ये ऋषि दयानंद जी की बात को ही नहीं मानते
नैष्ठिक जी के अनुसार वेद क्या है दृष्टिपात कीजिये: "मेरी दृष्टि में वेद उन छन्दों का समूह है जो सृष्टि प्रक्रिया में कम्पन के रूप में समय-समय पर उत्पन्न होते हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द विभिन्न प्रकार के प्राण होते हैं, जिनकी उत्पत्ति के कारण ही व जिनके विकृत होने से अग्नि, वायु आदि सभी तत्त्वों का निर्माण होता है। सूर्य, तारे, पृथिव्यादि सभी लोक इन छन्द प्राणों के ही विकार है| सृष्टि प्रक्रिया में उत्पन्न विभिन्न छन्द vibrations के रूप में इस समय भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। इन्हीं प्राणों को अग्नि आदि चार ऋषियों ने सृष्टि के आदि में सविचार सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में ईश्वरीय कृपा से ग्रहण किया था और फिर ईश्वरीय कृपा से ही उनके अर्थ का साक्षात् किया था। यही वेदोत्पत्ति की वैज्ञानिक प्रक्रिया है|"
क्या इन सब कपोलकल्पित बातों का ऋषि दयानंद ने कहीं समर्थन किया है? उन्होंने तो सीधा वेदोत्पतिविषय में लिखा है कि "वेद ईश्वर से उत्पन्न है।"
ऋषियों के प्रमाण से प्रकृति ही उपादान है, वेद मंत्र नहीं
प्रकृतेराद्योपादानतान्येषां कार्यत्व श्रुते: ॥ ६.३२॥ सांख्य दर्शन
सूत्रार्थ - प्रकृते:= प्रकृति को, आद्योपादानता =आदि उपादान कारण होना, अन्येषां = अन्य पदार्थों के, कार्यत्व = कार्यरूप होने का, श्रुते: = श्रुति अर्थात् वेद में प्रमाण होने से सिद्ध होता है।
अग्निव्रत जी के अनुसार वेद छंदों का समूह है। छन्द कम्पन vibrations के रूप में हैं, छन्द को उन्होंने प्राण भी कहा। अत: उनके अनुसार प्राणों का समूह “वेद' है। इससे यह भी स्पष्ट है कि 'छन्द' शब्द से उनका तात्पर्य वेद मंत्रो के गायत्री-त्रिष्टूप् आदि छन्दों से नहीं है। उनके अनुसार जिन छंदों का समूह वेद है, वे छन्द सृष्टि-प्रक्रिया में समय-समय पर उत्पन्न होते हैं, अर्थात् सृष्टि-प्रक्रिया से छन्द उत्पन्न होते हैं व ऐसे छन्दों=प्राणों का समूह वेद है। ये छन्द चूंकि समय-समय पर उत्पन्न होते हैं, अत: इससे यह भी मानना होगा कि वेद भी समय-समय पर उत्पन्न होते हैं। जिन छंदों का समूह वेद है, उन छन्दों=प्राणों की उत्पत्ति व विकार से उन्होंने अग्नि, वायु आदि सभी तत्वों का निर्माण होना कहा है। छन्द=प्राण से ही सूर्य, तारे, पृथिव्यादि सभी लोकों का निर्माण भी उन्होंने लिखा है। अर्थात् वे छन्द=प्राण को अग्नि, वायु, सूर्यादि का उपादान-कारण मानते हैं। यह उपादान- कारण जड़-प्रकृति का ही उत्पाद हो सकता है। इस प्रकार उनके अनुसार जड़ कार्यजगत् जिस उपादान-कारण छन्द= प्राण से उत्पन्न हुआ है, उसके समूह का नाम वेद है। अर्थात् जड़ पदार्थ से वेद की उत्पत्ति हुई है। निश्चय ही वह वेद भी अन्य जड़ वस्तुओं के समान कोई जड़ द्रव्य होना चाहिए। महर्षि के अनुसार वेद ज्ञानरूप हैं। ज्ञान के विकार से पृथिव्यादि नहीं बनते। अत: महर्षि का वेद (ज्ञानरूप) भिन्न है व नैष्टिक जी का वेद (छन्द-प्राण का समूह) भिन्न है। उनके अनुसार जिस छन्द=प्राण=वेद के विकार से सूर्यादि लोक बने, वह वेद ज्ञानरूप नहीं हो सकता।
उनके अनुसार यदि छन्द=प्राण से ही पृथिव्यादि बने हैं, तो यूं भी कहा जा सकता है कि ये सब वेद से बने हैं। सृष्टि-उत्पत्ति की प्रक्रिया में पहले वेद उत्पन्न हुए, वेद की उत्पत्ति के कारण ही व वेद के विकृत होने से ही अग्नि, वायु आदि बने; सूर्य, चन्र आदि लोक बने। उनके अनुसार तो वेद को इस कार्यजगत् का उपादान-कारण मानना होगा। महर्षि के अनुकूल मान्यता रखने व भाष्य करने का गौरव रखने वाले ने. अग्नित्रत जी क्या बतायेंगे कि वेद का यह स्वरूप महर्षि ने कहां बताया है? व यह महर्षि के मन्तव्य के अनुकूल कैसे है? नैष्टिक जी के अनुसार पहले छन्द=प्राण=वेद बने, फिर अग्नि, वायु, सूर्यादि बने। जबकि महर्षि दयानन्द मानव-सृष्टि के आदि में जब सूर्य-पृथ्वी आदि बन चुकते हैं, तब वेदों की उत्पत्ति मानते हैं। महर्षि वेद को मानव-सृष्टि के आदि में दिया मानते हैं, उन्होंने गणनापूर्वक उसका काल भी बताया, जबकि अग्निव्रत जी के अनुसार ये समय- समय पर उत्पन्न होते हैं, अर्थात् एक साथ सृष्टि के आदि में उत्पन्न नहीं होते।अग्निव्रत जी के अनुसार छन्द (कम्पन) =प्राण=वेद सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, व ऋषियों ने उसे ईश्वर की कृपा से ग्रहण किया। ईश्वर की कृपा से नै. जी का क्या तात्पर्य है? ईश्वर ने इसे ऋषियों को दिया या ईश्वर ने कृपा करके उन्हें ऐसी बुद्धि दी कि वे इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त वेद को ग्रहण कर पाये? यदि ईश्वर ने ऐसे (छन्द=प्राण) वेद को दिया, तो यहां 'देने' का क्या तात्पर्य है? वे जिस प्रकार की व्याप्तता वेद (छन्द=प्राण) की मान रहे हैं, उस रूप में व्याप्त किया, इसे देना कहें, तो यह तो सब मनुष्यों के लिए समान हुआ, फिर चार ऋषियों को ही वेद देने की बात असंगत हो जायेगी। यदि इन चार को ही दिया, तो देने का क्या तात्पर्य है, जब वे पहले ही सर्वत्र व्याप्त हैं। यदि उन्हें ऐसी बुद्धि दी, जिससे वे व्याप्त वेद (छन्द=प्राण) को स्वयं ग्रहण कर सकें, तो यह महर्षि की मान्यता से भिन्न होगा।
इसी प्रकार के प्रश्न वेद=प्राण के अर्थ जानने के विषय में भी उठेंगे। चार ऋषियों ने ईश्वरीय कृपा से उनके (प्राणों के=वेद के) अर्थ का साक्षात् किया। नैष्ठिक जी के वचनों से ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषियों ने ईश्वर-कृपा से प्राप्त सामर्थ्य से स्वयं प्राणों=वेद का साक्षात् किया। जैसे आज कोई वैज्ञानिक या विद्वान् प्राण=कम्पन=कार्यजगत् को देखकर स्वयं उनका साक्षात् करे, इसमें ईश्वर की कृपा कही जाती है, वैसी ईश्वर की कृपा। यदि उनका तात्पर्य ऐसा है, तो यह महर्षि के मन्तव्य के विपरीत है। महर्षि दयानन्द के अनुसार तो ईश्वर ने वेद-ज्ञान को ऋषियों की आत्मा में प्रकाशित किया। ऋषियों ने प्राणों=वेद को ब्रह्माण्ड से ग्रहण किया, यह महर्षि ने कहां कहा? अन्य अनेक लोग मानते हैं कि ऋषियों (मनुष्यों) ने सृष्टि को देख-जानकर वेदों (मन्रों) की रचना की। कुछ ऐसा ही नैष्ठिक जी के लेख से प्रतीत हो रहा है, किन्तु उन्होंने इसे ऐसे शब्दों-वाक्यों में प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक को ये बातें दयानन्द के प्रतिकूल न लगें। दयानन्द से भिन्न मान्यता का यह चतुराई पूर्ण दयानन्दीकरण है। अपनी दयानन्द भिन्न मान्यता को दयानन्द से भिन्न प्रतीत न होने देने का प्रयास है।
यहाँ लेख बहुत लंबा हो जाएगा। इसलिए मैं विचार कर रहा हूँ की मैं इसपे ईबुक लिखू। इस प्रकार के लोग आर्य समाज और उसके वैदिक सिद्धांत में विकृति लाने का कार्य करते हैं। आर्य विद्वान् को इसका खुलकर विरोध करना चाहिए । यदि वो ये सोच रहे हैं कि इनका विरोध करने से आपस में विरोध होगा, आर्य समाज की एकता भंग होगी। तो ये ठीक नहीं है। केवल एकता भंग होने के कारण हम गलत का विरोध न करें ये तो उचित नहीं है। यदि आज इनका विरोध ना किया गया तो? इसके परिणाम भविष्य में भयंकर हो सकते हैं।
ओ३म


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